ब्रह्मवाणी की अखण्ड धारा
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श्री प्राणनाथ जी वाणी
सुन्दरसाथ द्वारा, सुन्दरसाथ के लिए, सुन्दरसाथ को समर्पित
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
सामान्य प्रश्न
श्री प्राणनाथ जी वाणी के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं
शाश्वत सुख एवं शान्ति की
चाहना मानव के लिए स्वाभाविक है । इस लक्ष्य को पाने के लिए ही वह भौतिक
सुखों की मृग तृष्णा का शिकार होता है । जिस तरह से अग्नि में घी डालने पर
वह बुझती तो नहीं है अपितु उसकी लपटें और तेज होती जाती हैं , उसी प्रकार
इच्छाओं के भोग से इच्छायें और बढ़ती जाती हैं कदापि शान्त नही होतीं ।
यह सम्पूर्ण जगत् मोहात्मक है , जो
त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति से प्रगट हुआ है । प्रेम का शुद्ध स्वरूप
त्रिगुणातीत होता है । जब इस त्रिगुणात्मक जगत में प्रेम नहीं तो आनन्द भी
नहीं, क्योंकि आनन्द का स्वरूप तो प्रेम में ही समाहित होता
है । आनन्द के बिना शान्ति की कल्पना भी व्यर्थ है ।
भर्तृहरि का कथन है कि हमने भोगों को नहीं भोगा , बल्कि भोगों ने ही
हमें भोग डाला । हमने तप नहीं किया बल्कि त्रिविध तापों ने ही हमे तपा डाला
। काल की अवधि नहीं बीती , बल्कि हमारी ही उम्र बीत गई । तृष्णा बूढ़ी नहीं
हुई , बल्कि हम ही बूढ़े हो गए । (वैराग्य शतक ८)
महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं कि यदि सम्पूर्ण
पृथ्वी को रत्नों से भरकर भी किसी को दे दिया जाए , तो भी उसे शाश्वत
शान्ति तथा अमरत्व प्राप्त नहीं हो सकता । इस संसार में अपनी कामना के कारण
ही सब कुछ प्रिय होता है । इसलिए एकमात्र परब्रह्म ही देखने योग्य , श्रवण
( ज्ञान ) करने योग्य एवं ध्यान करने योग्य है । उस परब्रह्म को ही जान
लेने पर , सुन लेने पर, या देख लेने पर सब कुछ जाना हुआ हो जाता है ।
(बृहदारण्यक उपनिषद ४/५/३,६)
इसी प्रकार कठोपनिषद् का भी कथन है कि अपनी आत्मा से जिसने
परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है , एकमात्र उनके ही
पास शाश्वत सुख है अन्य के पास नहीं । (कठो. २/५/१३)
किन्तु जब तक परब्रह्म के धाम , स्वरूप , लीला, एवं निज स्वरूप का उचित
बोध न हो , तब तक आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया
सम्पादित नहीं की जा सकती । अतः हमे ब्रह्मज्ञान की शरण में जाना ही पड़ेगा
। दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है कि जब तक परब्रह्म का शुद्ध ज्ञान नहीं
होता , तब तक अखण्ड मुक्ति नहीं होती और अज्ञानता के कारण ही संसार बंधन
होता है ।
श्री प्राणनाथ जी का कथन है
कि चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन, और
ब्रह्मज्ञान (तारतम) पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक
क्षण का सदुपयोग कर अखण्ड धन (परब्रह्म का साक्षात्कार) प्राप्त करना चाहिए
। (किरन्तन १२८/४९)
महामुनि कपिल जी सांख्य दर्शन में कहते हैं कि तीनों
प्रकार के दुखों (दैहिक, दैविक, भौतिक) से पूर्ण रूप से छूटकर ब्रह्मानन्द
को प्राप्त करना ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। (सांख्य १/१)
इसी प्रकार शंकराचार्य
जी कहते हैं कि किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और
उसमें भी , जिसमें श्रुति के सिद्धान्त का ज्ञान होता है , ऐसा पुरुषत्व
पाकर जो मूढ़ बुद्धि अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता है , वह असत्
(जड़ प्रकृति) में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है और निश्चय ही
वह आत्मघाती है । (विवेक चूड़ामणि ४)
भर्तृहरि जी ने कहा है
-"संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विदयुत के समान अस्थिर हैं ।
जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद
के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं ।
बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य
के साथ ब्रह्म-चिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख-भोग
क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई
भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे-मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों
का संग्रह बन्द करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को
अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को
हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ।
जीवन जल की उतुंग तरंगों के समान चंचल
है । यौवन का सौन्दर्य भी कुछ ही दिनों का मेहमान है । धन-सम्पत्ति हवाई
महल के समान है । सुख-भोग वर्षाकालीन विदयुत की चमक के समान क्षण भर की झलक
मात्र है । प्रेमिकाओं का आलिंगन भी स्थायी नहीं है । अतः संसार के भय रूपी
सागर से पार होने के लिए एकमात्र सच्चिदानन्द परब्रह्म में ही ध्यान लगाओ
।
ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाला मनुष्य
ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझता है । उस
परमानन्द के समक्ष उसे तीनो लोकों का राज्य भी फीका प्रतीत होता है ।
वास्तविक और विशुद्ध आनन्द तो उसी में है । वह ब्रह्मानन्द तो निरन्तर
बढ़ता ही जाता है । उसको छोड़कर और सभी सुख तो क्षणिक ही हैं । अतः सभी को
उसी सच्चिदानन्द परब्रह्म में मन लगाना चाहिए ।" ( वैराग्य शतक ३७-४० )
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन है, जिन्हें आचरण में उतारने
वाला व्यक्ति ही धार्मिक कहलाने योग्य है-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः । धीः
विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।
1. धैर्य
- सुख और दुख का चक्र दिन तथा रात्रि की भान्ति बदलता रहता है
। एक सामान्य व्यक्ति जहाँ सुख में उन्मत हो जाता है और दुःख में अधीर ,
वहीं धर्म के स्वरूप में स्थित व्यक्ति दोनों स्थितयों में सम रहता है ।
सूर्य उगते समय लाल रंग का होता है तथा डूबते समय भी लाल रंग का ही होता है
। महापुरुष भी इसी प्रकार सुख-दुःख में सर्वदा सम अवस्था में रहते हैं ।
गीता का भी यही कथन है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, तथा मान-अपमान में
अपने को समान अवस्था में रखना चाहिए ।
2. क्षमा - क्षमा अलौकिक गुण है । वह तो महान
व्यक्तियों का आभूषण है । निर्बल व्यक्ति क्षमा की राह पर नहीं चल सकता ।
अति कृपालु परब्रह्म क्षमा का अनन्त भन्डार है । उदाहरण- एक बार जब महावीर
स्वामी ध्यान-साधना कर रहे थे तो एक व्यक्ति ने उनके कान में कील ठोक दिया,
परन्तु उन्होंने उसे कुछ नहीं कहा । यह उनकी महानता थी ।
3. दम - दम का अर्थ है दमन, अर्थात् मन, चित्त, और
इन्द्रियों से विषयों का सेवन न होने देना। अर्थात् अब तक जो इन्द्रियाँ
मायावी विषयों का सेवन कर रही थीं, चित्त विषयों के चिन्तन में लगा हुआ था,
तथा मन उनके मनन में तल्लीन था, उसे रोक देना दम (दमन) कहलाता है।
कठोपनिषद् का कथन है कि परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक,
जिह्वा, और त्वचा) का निर्माण किया है, जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती
हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग (रूप), हाथी (स्पर्श), हिरण
(ध्वनि), भौंरा (सुगन्ध), और मछली (रस) जब मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं,
तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की
क्या स्थिति हो सकती है । अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली
व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ।
4. अस्तेय - किसी के धन की इच्छा न करना ही अस्तेय
है। योग दर्शन में कहा गया है कि यदि मनुष्य मन, वाणी, तथा कर्म से अस्तेय
(चोरी न करना) में प्रतिष्ठित हो जाये, तो उसे सभी रत्नों की प्राप्ति
स्वतः ही हो जाएगी (योग दर्शन २/३९) । धार्मिक व्यक्ति के लिए तो पराया धन
मिट्टी के समान होता है ।
5. शौच (पवित्रता) - बाह्य और आन्तरिक पवित्रता धर्म
का प्रमुख अंग है । बाह्य पवित्रता का सम्बन्ध स्थूल शरीर से है तथा
आन्तरिक पवित्रता का सम्बन्ध अन्तःकरण की शुद्धता से है । यह सर्वांश सत्य
है कि अन्तःकरण को पवित्र किए बिना आध्यात्मिक मंजिल को प्राप्त नहीं किया
जा सकता ।
मनुस्मृति में कहा गया है कि जल से शरीर शुद्ध होता है । सत्य का पालन
करने से मन शुद्ध होता है । विद्या और तप से जीव शुद्ध होता है । ज्ञान से
बुद्धि शुद्ध होती है । वस्तुतः शौच का यही वास्तविक स्वरूप है ।
6. इन्द्रिय निग्रह - विषयों में फँसी हुई इन्द्रियों
को विवेकपूर्वक रोकना ही इन्द्रिय निग्रह है । इन इन्द्रियों के द्वारा
कितना ही मायावी सुखों का उपभोग क्यों न किया जाये, मन शान्त नहीं होता,
बल्कि तृष्णा पल-पल बढ़ती ही जाती है । इसके लिए हठपूर्वक दमन का मार्ग
नहीं अपनाना चाहिए, बल्कि शुद्ध आहार-विहार एवं ध्यान-साधना द्वारा
मन-बुद्धि को सात्विक बनाकर ही इन्द्रियों को विषयों से दूर रखा जा सकता है
।
7. बुद्धि - बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान ग्रहण किया जा
सकता है । बुद्धिविहीन व्यक्ति जब स्वाध्याय और सत्संग का लाभ ही नहीं ले
सकता, तो ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक उन्नति की कल्पना व्यर्थ है । वस्तुतः
शुद्ध बुद्धि को धारण करना भी धार्मिकता का लक्षण है ।
शुद्ध बुद्धि के लिए पूर्ण सात्विक आहार, ध्यान, तथा शुद्ध ज्ञान की
आवश्यकता होती है । समाधि की अवस्था में जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा (सत्य को
ग्रहण करने वाली यथार्थ बुद्धि) की प्राप्ति होती है, उसके द्वारा ब्रह्म
साक्षात्कार का मार्ग सरल हो जाता है । बुद्धि के शुद्ध होने पर चित्त तथा
मन भी शुद्ध हो जाते हैं, जिससे किसी प्रकार के मनोविकार के प्रकट होने की
सम्भावना नहीं रहती ।
8. विद्या - विद्या दो प्रकार की होती है- परा और
अपरा । परा विद्या (ब्रह्मविद्या) से उस अविनाशी ब्रह्म को जाना जाता है,
जबकि अपरा विद्या से लौकिक सुखों की प्राप्ति होती है । मानव जीवन को सुखी
बनाने के लिए दोनों विद्याओं की अपनी-अपनी उपयोगिता है ।
ब्रह्मवाणी (श्री कुलजम स्वरूप) से ही परब्रह्म के यथार्थ स्वरूप व
आत्म तत्व को जाना जाता है तथा प्रेम लक्ष्णा भक्ति के द्वारा साक्षात्कार
किया जाता है।
9. सत्य - सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही जीवन है, और
सत्य ही धर्म का आधार है। तीनों लोक में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और
झूठ के बराबर पाप नहीं है । कबीर जी ने कहा है- "सांच बराबर तप नहीं, झूठ
बराबर पाप । जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।।"
झूठ वर्तमान में कितना ही शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो, अन्ततोगतवा
सत्य की ही विजय होती है । योग दर्शन का कथन है कि यदि मन, वाणी, और कर्म
से सत्य में स्थित हो जाया जाए, तो वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् मुख
से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है । सत्य का पालन ही मोक्ष मार्ग का
विस्तार करने वाला है ।
10. अक्रोध - धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि क्रोध
के समान मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य के धैर्य, ज्ञान,
और सारी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है । क्रोध से शारीरिक, मानसिक, तथा
आत्मिक उन्नति का द्वार बन्द हो जाता है,। धार्मिक व्यक्ति को तो स्वप्न
में भी क्रोध नहीं करना चाहिए ।