ब्रह्मवाणी की अखण्ड धारा

सतगुरु व परमहंस

400 वर्षों का इतिहास

“सतगुरु ब्रह्मानंद है” परब्रह्म परमात्मा के आनंद अंग श्यामा जी धनी श्री देवचंद्र जी के स्वरुप में हमारे सतगुरु हैं I सतगुरु और पूर्णब्रह्म में बहुत सूक्ष्म सा भेद है I यह भेद इतना सूक्ष्म है कि कहा जा सकता है कि दोनों में कोई भेद ही नहीं है l इस संसार की लीला में सतगुरु परब्रह्म नहीं होते किन्तु उनकी आत्मा परब्रह्म की दुल्हन होती है I उनके अन्दर प्रियतम का जोश आवेश और हुक्म विराजमान होता है I इसलिए सतगुरु तो परब्रह्म से मिलने का एक मात्र साधन और परब्रह्म का प्रतिबिंब ही है I घड़े के जल के उस प्रतिबिंब की तरह सूर्य के प्रतिबिंब को देखकर सूर्य की पहचान हो जाती है वैसे ही सतगुरु के स्वरूप में देखकर परब्रह्म की पहचान हो जाती है क्योंकि उनके हृदय में समस्त ब्रह्म आत्माओं के साथ परब्रह्म विराजमान होते हैं l

सतगुरु ब्रह्मानंद है

सतगुरु की महिमा

भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। स्कंध पुराण में तो गुरु को ही परमात्मा की संज्ञा दी गई है।

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:, गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।

अर्थात् - गुरु ही ब्रह्म रूप है क्योंकि वह शिष्य को बनाता है, गुरु विष्णु रूप है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है, गुरु शिव रूप है क्योंकि वह शिष्य के सभी देशों का संहार भी करता है, गुरु ही साक्षात् परब्रह्म परमात्मा का स्वरूप है, ऐसे समर्थ गुरु को मैं प्रणाम करता हूं । श्री गुरु अर्जुन देव जी भी अपनी पवित्र वाणी में गुरु को परमात्मा के समान बताते हैं।

गुरु की महिमा कथनु न जाई, पारब्रह्म गुर रहया समाई ।

अर्थात् - गुरु की महिमा का बखान शब्दों में नहीं जा सकता, वह परब्रह्म परमात्मा ही सतगुरु रूप में निवास करता है । सतगुरु परमात्मा का ही रूप होता है । सद्गुरु का शब्दार्थ है सच्चे (सत्य, अखंड) गुरु अर्थात् वह गुरु जो हमें सत अखंड परमात्मा की पहचान करवाए। इसी संदर्भ में सद्गुरु की महिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है । सतगुरु वह है जो सच्चे ज्ञान का प्रदाता है और अपने शिष्य को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करता है । श्री गुरु अर्जुन देव जी अपनी वाणी में फुरमाते हैं-

सति पुरुखु जिनि जानिआ, सतिगुरु तिस का नाउ।।

अर्थात् - जो उस सत पुरुष (अखंड परमात्मा) को जानता है वही सतगुरु कहा सकता है । श्री गुरु ग्रंथ साहिब में श्री अर्जुन देव जी कहते हैं –

बिनु सतिगुरू किनै न पाई परमगते (प्रभाती- प - 1348)

अर्थात् - सतगुरु के मार्गदर्शन के बिना किसी को भी परम गति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । सतगुरु ऐसे पूर्ण विभूति होते हैं जो जीव आत्मा और परमात्मा को पहचान चुके हैं और हमें भवसागर से पार कर के परमात्मा का साक्षात्कार करवा सकते हैं ।

सतगुरु हद के पार बेहद और बेहद के पार अक्षर और उससे भी परे परमात्मा सच्चिदानंद का ज्ञान देते हैं । कबीर साहब ने कहा है :-

हद में रहे सो मानवी बेहद रहे सो साध ।
हद बेहद दोनों तजै,ताका मता अगाध ।।

अर्थात् - जो हद और बेहद को छोड़कर उसके आगे अक्षर और अक्षरातीत का ज्ञान दे, उसकी बुद्धि महान है । वही पूर्ण सतगुरु होगा। निजानंद संप्रदाय में गुरु और सतगुरु के लिए कहा गया है –

गुरु कंचन गुरु पारस गुरु चंदन प्रमाण ।
तुम सतगुरु दीपक भये , कियो जो आप सामान ।।

गुरु कंचन के समान हो सकता है यानि वह खुद सद्गुणों का भंडार होते हैं परंतु शिष्य को अपनी जैसा पूर्ण सद्गुणों वाला नहीं बना सकते। गुरु पारस हो सकता है जो शिष्यों के अवगुणों (विकारों) को दूर करते हैं परंतु अपने समान पारस नहीं बनाता । गुरु चंदन के समान होते हैं परंतु शिष्यों के मूल स्वभाव को नहीं बदल पाते अर्थात अपने समान नहीं बनाते लेकिन सतगुरु दीपक के समान होते हैं जो अन्य दीपकों (शिष्यों)को भी जलकर अपने सामान बना लेते हैं । सतगुरु वह श्रेष्ठतम पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी विभूति होता है जो दीपक की भांति हमें ज्ञान तो देता है । प्रकाश के रूप में उसके साथ-साथ वही ज्योति वह हमें भी समान रूप से प्रदान करता है । वह हमारे साथ शिष्यता का भेद नहीं रखता । सतगुरु की पहचान बताते हुए स्वयं अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म बताते हैं कि

सतगुरु साधु वाको कहिए, जो अगम की देवे गम ।
हद बेहद सबे समझावे, भाने मन को भरम ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 4/12

अर्थात् - सतगुरु उन्हें कहा जाता है जो हमें पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की पहचान करवा दे और हमारे मन के सारे भरम समाप्त हो जाएं। इसी को विस्तृत रूप में श्री प्राणनाथ जी फुरमाते हैं :-

सतगुरु सोई जो आप चिन्हावे, माया धनी और घर ।
सब चीन्ह परे आखिर की, ज्यों भूलिए नहीं अवसर ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 14/11

पूर्ण सतगुरु वही है जो हमें हमारे निज स्वरूप की पहचान करवा दे और यह बता दे कि हम कौन हैं ? माया क्या है ? ब्रह्म क्या है ? और हमारा (आत्मा का) घर कहां है ? यहां तक कि सच्चे सतगुरु की कृपा से मूल से लेकर महाप्रलय तक की खबर हो जाती है । सतगुरु के अंदर परमात्मा की शक्ति कार्य करती है । सतगुरु अपने अनुयायियों को पांच तत्वों की पूजा से निकलते हैं और पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की पहचान करवाते हैं । ब्रह्म वाणी श्री कुलजम स्वरूप साहेब जी अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्मा के मुखारविंद की वाणी है जिसमें सतगुरु की महिमा और गरिमा को दर्शाया गया है । श्री प्राणनाथ जी सतगुरु का महत्व बताते हुए कहते हैं

मृग जलसों त्रिखा भाजे, तो गुरु बिन जीव पार पावे ।
अनेक उपाय करें जो कोई, तो बिंद का बिंद में समावे ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 2/6

अर्थात् - जिस प्रकार मृगजल से कभी प्यास मिट नहीं सकती उसी प्रकार सद्गुरु की कृपा के बिना कभी भवसागर पार नहीं कर सकता चाहे वह कितना भी जप, तप, व्रत या योग साधना क्यों न कर ले । सद्गुरु की महिमा शब्दों में वर्णित करना अत्यंत कठिन है । उनका महत्व उनके अनुभव, ज्ञान और शिष्यों के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवा में निहित होता है । सतगुरु के मार्गदर्शन में शिष्य आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होते हैं और अपने जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बना पाते हैं । सतगुरु की महिमा को नमन करते हुए हम उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को ज्ञान और प्रकाश से आलोकित करते हैं ।

श्री परमेश्वरी बाई जी

श्री रामरतन दास जी

श्री राजन स्वामी जी

"सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी

महामति श्री लालदासजी

सतगुरु व परमहंस

श्री राजन स्वामी जी

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ
||ब्रह्मज्ञान ही अमृत है - प्रेम ही जीवन है|| ज्ञानपीठ का दिव्य उद्देश्य

ज्ञान, शिक्षा, उच्च आदर्श, पावन चरित्र, व श्री प्राणनाथ जी की ब्रह्मवाणी (निजानन्द दर्शन) के साथ साथ भारतीय संस्कृति का समाज में प्रचार करना, तथा वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा मानव को महामानव बनाना ।

श्री राजन स्वामी बाल्यकाल से ही परिश्रमी, अध्ययनशील, सौम्य, मृदु भाषी, तथा तीक्ष्ण बुद्धि के धनी रहे हैं

श्री राजन स्वामी जी का जन्म सन् १९६६ में बलिया जिले के ग्राम सीसोटार में हुआ था । आपकी माताजी का स्वभाव अत्यन्त स्नेहमयी व आध्यात्मिक है तथा आपके पिताजी ने सदा ही निर्धनों के अधिकारों की रक्षा व सामाजिक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक अपनी सम्पत्ति व्यय की ।

श्री राजन स्वामी बाल्यकाल से ही परिश्रमी, अध्ययनशील, सौम्य, मृदु भाषी, तथा तीक्ष्ण बुद्धि के धनी रहे हैं । विद्यार्थी जीवन में आप सदा कक्षा मे अव्वल रहते थे तथा समय बचाकर आप अगली कक्षा की पुस्तकें भी पढ़ लिया करते थे । संस्कृत भाषा में सदा से आपकी विशेष रुचि रही है ।

पूर्व संस्कारों,यदा-कदा मिले सत्संग, तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों से मिले दिशानिर्देशानुसार आपने पहले मन्त्र जाप, तद्पश्चात ध्यान साधना प्रारम्भ कर दी । १४ वर्ष की छोटी सी आयु में आप प्रतिदिन घर पर ४-५ घण्टे की नियमित साधना करने लगे । कठोर साधनामयी दिनचर्या व सदा परमात्मा चिन्तन में डूबे रहने के कारण आपका मन सांसारिक गतिविधियों से विरक्त रहने लगा ।

स्वामी जी ने १८ वर्ष की अल्पायु में गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिया । तद्पश्चात आप कभी अपने घर वापस नहीं गए । साधन के रूप में धन, वस्त्र, व भोजन सामग्री न ले जाकर , आप अपने साथ वेदों की प्रतिलिपि लेकर चले । हिमालय व उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों की यात्रा करते हुए आप एकान्तवास में अपनी आत्मक्षुधा को तृप्त करने में लीन रहे । आपने योग की दीक्षा लेकर योगाभ्यास किया तथा वेदादि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन भी किया । साधनाकाल में आपने कभी भी लेट कर शयन नहीं किया, अपितु ध्यान में बैठे-बैठे ही रात्रि बितायी ।

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