ब्रह्मवाणी की अखण्ड धारा

सतगुरु व परमहंस

400 वर्षों का इतिहास

“सतगुरु ब्रह्मानंद है” परब्रह्म परमात्मा के आनंद अंग श्यामा जी धनी श्री देवचंद्र जी के स्वरुप में हमारे सतगुरु हैं I सतगुरु और पूर्णब्रह्म में बहुत सूक्ष्म सा भेद है I यह भेद इतना सूक्ष्म है कि कहा जा सकता है कि दोनों में कोई भेद ही नहीं है l इस संसार की लीला में सतगुरु परब्रह्म नहीं होते किन्तु उनकी आत्मा परब्रह्म की दुल्हन होती है I उनके अन्दर प्रियतम का जोश आवेश और हुक्म विराजमान होता है I इसलिए सतगुरु तो परब्रह्म से मिलने का एक मात्र साधन और परब्रह्म का प्रतिबिंब ही है I घड़े के जल के उस प्रतिबिंब की तरह सूर्य के प्रतिबिंब को देखकर सूर्य की पहचान हो जाती है वैसे ही सतगुरु के स्वरूप में देखकर परब्रह्म की पहचान हो जाती है क्योंकि उनके हृदय में समस्त ब्रह्म आत्माओं के साथ परब्रह्म विराजमान होते हैं l

सतगुरु ब्रह्मानंद है

सतगुरु की महिमा

भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। स्कंध पुराण में तो गुरु को ही परमात्मा की संज्ञा दी गई है।

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:, गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।

अर्थात् - गुरु ही ब्रह्म रूप है क्योंकि वह शिष्य को बनाता है, गुरु विष्णु रूप है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है, गुरु शिव रूप है क्योंकि वह शिष्य के सभी देशों का संहार भी करता है, गुरु ही साक्षात् परब्रह्म परमात्मा का स्वरूप है, ऐसे समर्थ गुरु को मैं प्रणाम करता हूं । श्री गुरु अर्जुन देव जी भी अपनी पवित्र वाणी में गुरु को परमात्मा के समान बताते हैं।

गुरु की महिमा कथनु न जाई, पारब्रह्म गुर रहया समाई ।

अर्थात् - गुरु की महिमा का बखान शब्दों में नहीं जा सकता, वह परब्रह्म परमात्मा ही सतगुरु रूप में निवास करता है । सतगुरु परमात्मा का ही रूप होता है । सद्गुरु का शब्दार्थ है सच्चे (सत्य, अखंड) गुरु अर्थात् वह गुरु जो हमें सत अखंड परमात्मा की पहचान करवाए। इसी संदर्भ में सद्गुरु की महिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है । सतगुरु वह है जो सच्चे ज्ञान का प्रदाता है और अपने शिष्य को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करता है । श्री गुरु अर्जुन देव जी अपनी वाणी में फुरमाते हैं-

सति पुरुखु जिनि जानिआ, सतिगुरु तिस का नाउ।।

अर्थात् - जो उस सत पुरुष (अखंड परमात्मा) को जानता है वही सतगुरु कहा सकता है । श्री गुरु ग्रंथ साहिब में श्री अर्जुन देव जी कहते हैं –

बिनु सतिगुरू किनै न पाई परमगते (प्रभाती- प - 1348)

अर्थात् - सतगुरु के मार्गदर्शन के बिना किसी को भी परम गति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । सतगुरु ऐसे पूर्ण विभूति होते हैं जो जीव आत्मा और परमात्मा को पहचान चुके हैं और हमें भवसागर से पार कर के परमात्मा का साक्षात्कार करवा सकते हैं ।

सतगुरु हद के पार बेहद और बेहद के पार अक्षर और उससे भी परे परमात्मा सच्चिदानंद का ज्ञान देते हैं । कबीर साहब ने कहा है :-

हद में रहे सो मानवी बेहद रहे सो साध ।
हद बेहद दोनों तजै,ताका मता अगाध ।।

अर्थात् - जो हद और बेहद को छोड़कर उसके आगे अक्षर और अक्षरातीत का ज्ञान दे, उसकी बुद्धि महान है । वही पूर्ण सतगुरु होगा। निजानंद संप्रदाय में गुरु और सतगुरु के लिए कहा गया है –

गुरु कंचन गुरु पारस गुरु चंदन प्रमाण ।
तुम सतगुरु दीपक भये , कियो जो आप सामान ।।

गुरु कंचन के समान हो सकता है यानि वह खुद सद्गुणों का भंडार होते हैं परंतु शिष्य को अपनी जैसा पूर्ण सद्गुणों वाला नहीं बना सकते। गुरु पारस हो सकता है जो शिष्यों के अवगुणों (विकारों) को दूर करते हैं परंतु अपने समान पारस नहीं बनाता । गुरु चंदन के समान होते हैं परंतु शिष्यों के मूल स्वभाव को नहीं बदल पाते अर्थात अपने समान नहीं बनाते लेकिन सतगुरु दीपक के समान होते हैं जो अन्य दीपकों (शिष्यों)को भी जलकर अपने सामान बना लेते हैं । सतगुरु वह श्रेष्ठतम पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी विभूति होता है जो दीपक की भांति हमें ज्ञान तो देता है । प्रकाश के रूप में उसके साथ-साथ वही ज्योति वह हमें भी समान रूप से प्रदान करता है । वह हमारे साथ शिष्यता का भेद नहीं रखता । सतगुरु की पहचान बताते हुए स्वयं अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म बताते हैं कि

सतगुरु साधु वाको कहिए, जो अगम की देवे गम ।
हद बेहद सबे समझावे, भाने मन को भरम ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 4/12

अर्थात् - सतगुरु उन्हें कहा जाता है जो हमें पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की पहचान करवा दे और हमारे मन के सारे भरम समाप्त हो जाएं। इसी को विस्तृत रूप में श्री प्राणनाथ जी फुरमाते हैं :-

सतगुरु सोई जो आप चिन्हावे, माया धनी और घर ।
सब चीन्ह परे आखिर की, ज्यों भूलिए नहीं अवसर ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 14/11

पूर्ण सतगुरु वही है जो हमें हमारे निज स्वरूप की पहचान करवा दे और यह बता दे कि हम कौन हैं ? माया क्या है ? ब्रह्म क्या है ? और हमारा (आत्मा का) घर कहां है ? यहां तक कि सच्चे सतगुरु की कृपा से मूल से लेकर महाप्रलय तक की खबर हो जाती है । सतगुरु के अंदर परमात्मा की शक्ति कार्य करती है । सतगुरु अपने अनुयायियों को पांच तत्वों की पूजा से निकलते हैं और पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की पहचान करवाते हैं । ब्रह्म वाणी श्री कुलजम स्वरूप साहेब जी अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्मा के मुखारविंद की वाणी है जिसमें सतगुरु की महिमा और गरिमा को दर्शाया गया है । श्री प्राणनाथ जी सतगुरु का महत्व बताते हुए कहते हैं

मृग जलसों त्रिखा भाजे, तो गुरु बिन जीव पार पावे ।
अनेक उपाय करें जो कोई, तो बिंद का बिंद में समावे ।।
श्री कि.ग्रंथ प्र. 2/6

अर्थात् - जिस प्रकार मृगजल से कभी प्यास मिट नहीं सकती उसी प्रकार सद्गुरु की कृपा के बिना कभी भवसागर पार नहीं कर सकता चाहे वह कितना भी जप, तप, व्रत या योग साधना क्यों न कर ले । सद्गुरु की महिमा शब्दों में वर्णित करना अत्यंत कठिन है । उनका महत्व उनके अनुभव, ज्ञान और शिष्यों के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवा में निहित होता है । सतगुरु के मार्गदर्शन में शिष्य आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होते हैं और अपने जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बना पाते हैं । सतगुरु की महिमा को नमन करते हुए हम उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को ज्ञान और प्रकाश से आलोकित करते हैं ।

श्री राजन स्वामी जी

"सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी

श्री कृष्ण प्रियाचार्य जी

श्री गोपाल मणि जी

श्री मंगल दास जी

श्री बाबा दयाराम साहब जी

श्री परमेश्वरी बाई जी

श्री रामरतन दास जी

सतगुरु व परमहंस

श्री राजन स्वामी जी

श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ
||ब्रह्मज्ञान ही अमृत है - प्रेम ही जीवन है|| ज्ञानपीठ का दिव्य उद्देश्य

ज्ञान, शिक्षा, उच्च आदर्श, पावन चरित्र, व श्री प्राणनाथ जी की ब्रह्मवाणी (निजानन्द दर्शन) के साथ साथ भारतीय संस्कृति का समाज में प्रचार करना, तथा वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा मानव को महामानव बनाना ।

श्री राजन स्वामी बाल्यकाल से ही परिश्रमी, अध्ययनशील, सौम्य, मृदु भाषी, तथा तीक्ष्ण बुद्धि के धनी रहे हैं

श्री राजन स्वामी जी का जन्म सन् १९६६ में बलिया जिले के ग्राम सीसोटार में हुआ था । आपकी माताजी का स्वभाव अत्यन्त स्नेहमयी व आध्यात्मिक है तथा आपके पिताजी ने सदा ही निर्धनों के अधिकारों की रक्षा व सामाजिक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक अपनी सम्पत्ति व्यय की ।

श्री राजन स्वामी बाल्यकाल से ही परिश्रमी, अध्ययनशील, सौम्य, मृदु भाषी, तथा तीक्ष्ण बुद्धि के धनी रहे हैं । विद्यार्थी जीवन में आप सदा कक्षा मे अव्वल रहते थे तथा समय बचाकर आप अगली कक्षा की पुस्तकें भी पढ़ लिया करते थे । संस्कृत भाषा में सदा से आपकी विशेष रुचि रही है ।

पूर्व संस्कारों,यदा-कदा मिले सत्संग, तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों से मिले दिशानिर्देशानुसार आपने पहले मन्त्र जाप, तद्पश्चात ध्यान साधना प्रारम्भ कर दी । १४ वर्ष की छोटी सी आयु में आप प्रतिदिन घर पर ४-५ घण्टे की नियमित साधना करने लगे । कठोर साधनामयी दिनचर्या व सदा परमात्मा चिन्तन में डूबे रहने के कारण आपका मन सांसारिक गतिविधियों से विरक्त रहने लगा ।

स्वामी जी ने १८ वर्ष की अल्पायु में गृह त्याग कर सन्यास ग्रहण कर लिया । तद्पश्चात आप कभी अपने घर वापस नहीं गए । साधन के रूप में धन, वस्त्र, व भोजन सामग्री न ले जाकर , आप अपने साथ वेदों की प्रतिलिपि लेकर चले । हिमालय व उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों की यात्रा करते हुए आप एकान्तवास में अपनी आत्मक्षुधा को तृप्त करने में लीन रहे । आपने योग की दीक्षा लेकर योगाभ्यास किया तथा वेदादि आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन भी किया । साधनाकाल में आपने कभी भी लेट कर शयन नहीं किया, अपितु ध्यान में बैठे-बैठे ही रात्रि बितायी ।

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सतगुरु व परमहंस

"सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी

"सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी जन्म 5 फरवरी 1925 को श्री काशीराम आहूजा एवं माता श्रीमती माया बाई जी के घर हुआ

आप जन्म से ही प्रणामी थे। पश्चिमी पाकिस्तान के मिन्टगुमरी गाँव में रहते थे। गाँव के पास एक हड़प्पा शहर था जहां अधिकतर धर्म प्रचारक महाराज आते थे। आपके पिता ने घर में ही सुन्दर साथ के लिए मन्दिर की व्यवस्था कर दी थी। आपके पिता बड़े भाव से महाराज जी की सेवा करते थे।

"सरकार श्री" जगदीश चन्द्र जी

आपका जन्म 5 फरवरी 1925 को श्री काशीराम आहूजा एवं माता श्रीमती माया बाई जी के घर हुआ । आप जन्म से ही प्रणामी थे । पश्चिमी पाकिस्तान के मिन्टगुमरी गाँव में रहते थे । गाँव के पास एक हड़प्पा शहर था जहां अधिकतर धर्म प्रचारक महाराज आते थे । आपके पिता ने घर में ही सुन्दर साथ के लिए मन्दिर की व्यवस्था कर दी थी । आपके पिता बड़े भाव से महाराज जी की सेवा करते थे ।

आप बचपन से ही चंचल , दृढ़ निश्चय , तथा तर्कशील बुद्धि वाले थे । आप केवल मेहरदास जी महाराज जी से प्रभावित थे । 12 , 13 वर्ष की आयु में आप बड़ी बहन के पास अग्रिम शिक्षा के लिए शहर गए । आप वहां पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गए । आपका जीवन अनुशासनमयी बन गया । आपने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली । आपने 20 साल की आयु में एक सामाजिक कटुता का अनुभव किया । कई कुप्रभाव के कारण आप प्रणामी धर्म व समाज से दूर होने लगे । तब नवतनपुरी धाम के आचार्य श्री धनीदास जी वहां पहुंचे । वह निस्वार्थ फक्कड़ फकीर आचार्य श्री परमहंस पद को प्राप्त होने वाले थे । उन्होंने फूट डालने वालों को सही राह दिखाई । आपको आचार्य श्री के प्रति अत्यधिक श्रद्धाभाव पैदा हो गया ।

युवावस्था में संघ की शाखा में सन् 1994 में आपने घुड़सवारी , तैराकी , दंड और तलवार चलाने का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया । सन् 1946 में सर्वोच्च शिक्षा इन्टरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से प्राप्त कर ली । आप जीवन की मनोभावनाओं में निस्वार्थ सेवा, निर्बलों को गले लगाना , निःसंकोच कटु सत्यवादिता , दृढ़ निश्चयी आदि कठिन से कठिन सोपानों पर अग्रसर होते गए । एक बार घुड़सवारी के दौरान आपकी टांग में लोहे की रकाब की रगड़ का जख्म हो गया । दहशत थी कि टांग न चली जाए । एक वैद्य फरिश्ते के रूप में आये और उनकी टांग को बचा लिया । वैद्य ने राम लीला में अभिनय करने का वचन आपसे ले लिया । आपने अभिनय का एक अच्छा परिचय दिया ।

भारत पाकिस्तान का बटवारा होने से पूर्व महाराज श्री रामरतन दास जी शेरपुर आश्रम बसा चुके थे । उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि आप सुन्दर साथ शीघ्र ही अपने कारोबार समेट कर शेरपुर आश्रम में आ जाओ । हिन्दुस्तान का वह भाग विभाजन के बाद पाकिस्तान में आ गया । 5 दिन में 200 कि॰मी॰ की पद यात्रा भूखे प्यासे रह कर भारत में आ गए । वहां से आप सबसे पहले काशीपुर , मेरठ , इलाहाबाद , मुरादाबाद और अन्त में गुड़गांव में स्थायी हुए । 25 दिसम्बर 1948 को लगभग 23 वर्ष की आयु में आपका विवाह कु0 कृष्णा सुपुत्री श्री आत्मारामजी के साथ हुआ । आपकी नौकरी डाक तार विभाग में तथा श्रीमती कृष्णा जी की नौकरी एक विद्यालय में लगी । अप्रैल 1949 में आर एम एस की नौकरी रिफ्यूजी कमेटी में सचिव पद मिला । आपके मन में हनुमान दर्शन की लालसा प्रबल हो उठी । 25 वर्ष की आयु में 25 दिसम्बर 1950 में आपके निर्मल भाव की लगन से आपको हनुमान जी का दर्शन हो गया ।

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15 नवम्बर 2000 को प्रातः 4 बजे ब्रह्मलीन हुए

5 फरवरी 2000 को धर्मवीर जागनी रत्न सरकार श्री के 75 वर्ष को मनाने का कार्यक्रम रखा गया । उसका नाम अमृत महोत्सव 2000 से प्रसिद्ध हुआ । 15 नवम्बर 2000 को प्रातः 4 बजे वो सांसारिक तन को छोड़कर ब्रह्मलीन हुए

सन् 1946 में सर्वोच्च शिक्षा इन्टरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से प्राप्त कर ली।

युवावस्था में संघ की शाखा में सन् 1994 में आपने घुड़सवारी, तैराकी, दंड और तलवार चलाने का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया। सन् 1946 में सर्वोच्च शिक्षा इन्टरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से प्राप्त कर ली।

सतगुरु व परमहंस

श्री कृष्ण प्रियाचार्य जी

सम्पूर्ण जीवन चिन्तन, मनन, अध्ययन और धर्मप्रचार में समर्पित कर दिया

श्री ५ महामंगलपुरी धाम सूरत का आचार्य पद छोड़कर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन चिन्तन, मनन, अध्ययन और धर्मप्रचार में समर्पित कर दिया

खंभात में धर्म प्रचार : ई. सन् १९७६

धर्मक्षेत्र में भी खंभात विख्यात था । जिस तरह से पन्ना हीरे की खदानों के लिए प्रसिद्ध है उसी तरह खंभात को ब्रह्मसृष्टिओं के क्षेत्र से जाना जाता है । प्रणामी धर्म में खंभात सोमजीभाई के नाम से प्रसिद्ध है ।

श्री कृष्ण प्रियाचार्य महाराज

परमहंस श्री कृष्णप्रियाजी महाराजश्री के जीवन पर उनके सद्गुरू श्री कृष्णारामजी महाराजश्री का काफी प्रभाव रहा था | श्री ५ महामंगलपुरी धाम सूरत का आचार्य पद छोड़कर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन चिन्तन, मनन, अध्ययन और धर्मप्रचार में समर्पित कर दिया | उनकी वाणी में अद्भूत जादू था | इसलिए सम्पूर्ण भारत वर्ष से सुंदरसाथ उनकी वाणी सुनने हंमेशा तत्पर रहेते थे | दूसरी तरफ उन्होंने भरोड़ा में भद्रावती पूरी धामकी स्थापना करने के बाद भारत के विभिन्न स्थानों पर जाकर प्रणामी धर्मका प्रचार – प्रसार किया था | यहां उनके द्वारा अनेक स्थानों पर किए गए प्रणामी धर्म के प्रचार की महिमा प्रस्तुत की गई है |

खंभात में धर्म प्रचार : ई. सन् १९७६
धर्मक्षेत्र में भी खंभात विख्यात था । जिस तरह से पन्ना हीरे की खदानों के लिए प्रसिद्ध है उसी तरह खंभात को ब्रह्मसृष्टिओं के क्षेत्र से जाना जाता है । प्रणामी धर्म में खंभात सोमजीभाई के नाम से प्रसिद्ध है । महामती श्री प्राणनाथजी ने वि सं १७३१ में सूरत से ५०० सुंदरसाथ सहित पैदल प्रणामी धर्मका जागनी अभियान शुरू किया था । इसमे खंभात के सुंदरसाथ सोमजीभाई शामिल हुए थे । आज खंभात का प्रणामी मंदिर सोमजीभाई का घर है । जंहा महामतिजी ने श्री ५ पदमावतीपुरी धाम से श्री भट्टाचार्यजी महाराज के साथ भेजी हुई अपने वाघा-वस्त्रो की सेवा पधराई हुई है ।

परमहंस महाराजश्री भी खंभात के मंदिर में दर्शानार्थ आते थे । इसी समय परमहंस महाराजश्री को खंभात के सुंदरसाथजी ने आमन्त्रित किया ।

खंभात के धर्मप्रेमी सुंदरसाथ श्री रमणभाई साड़ीवालो ने ई सन् १९७६ में खंभात मंदिर में १०८ साप्ताहिक पारायण का आयोजन किया ।

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वि सं १७३१ में सूरत से ५०० सुंदरसाथ सहित पैदल प्रणामी धर्मका जागनी अभियान

महामती श्री प्राणनाथजी ने वि सं १७३१ में सूरत से ५०० सुंदरसाथ सहित पैदल प्रणामी धर्मका जागनी अभियान शुरू किया था । इसमे खंभात के सुंदरसाथ सोमजीभाई शामिल हुए थे । आज खंभात का प्रणामी मंदिर सोमजीभाई का घर है ।

ई सन् १९७६ में खंभात मंदिर में १०८ साप्ताहिक पारायण का आयोजन किया

परमहंस महाराजश्री सभा मंडप में विशिष्ट तरीके से सिनगारित व्यासपीठ पर विराजमान हुए । उनमें ऐसी दिव्य शक्ति थी की, उनके आसपास का समग्र वातावरण एक आलौकिक ऊर्जा से विद्यमान हो गया । तमाम सुंदरसाथ महाराजश्री की दिव्य प्रतिभा से आकर्षित हो उठे । कार्यक्रम के प्रथम दिन ही प्रार्थना के बाद महाराजश्री ने प्रारम्भिक प्रवचन में उपस्थित सर्व सुंदरसाथ को कहा कि, यह खंभात नागरी में साक्षात अक्षरातीत स्वरूप श्री प्राणनाथजी के वाघा-वस्त्रों की सेवा में विराजीत हैं । यह धरती धन्य है ।

सतगुरु व परमहंस

श्री गोपाल मणि जी

श्री गोपाल मणि जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय

श्री 108 श्री अनन्त श्री गोपाल मणि जी महाराज परमधाम की श्री राज जी महाराज की पुष्पावती ( प्रेम सखी ) नाम की अंगना है l उन्होंने अपने धाम हृदय में युगल स्वरुप को विराजमान कराया l

बाद आपका यह प्रकट पूर्ण पुरुषोत्तम स्वरुप परमहंस गोपालमणि जी के नाम से जग में विख्यात हुआ

जगत में धर्म उत्थान के लिए कलियुग के 4660 वर्ष व्यतीत होने पर आपका जन्म संवत 1616 में मधुबनी ग्राम में पिता पं०विभूषण वेदमणि तथा माता सुलक्षणा के घर में हुआ l जन्म से ही आप दिव्य आकर्षण मोहित रूप युक्त थे l

श्री गोपाल मणि जी

श्री 108 श्री अनन्त श्री गोपाल मणि जी महाराज परमधाम की श्री राज जी महाराज की पुष्पावती ( प्रेम सखी ) नाम की अंगना है l उन्होंने अपने धाम हृदय में युगल स्वरुप को विराजमान कराया l उसके बाद आपका यह प्रकट पूर्ण पुरुषोत्तम स्वरुप परमहंस गोपालमणि जी के नाम से जग में विख्यात हुआ l जगत में धर्म उत्थान के लिए कलियुग के 4660 वर्ष व्यतीत होने पर आपका जन्म संवत 1616 में मधुबनी ग्राम में पिता पं०विभूषण वेदमणि तथा माता सुलक्षणा के घर में हुआ l जन्म से ही आप दिव्य आकर्षण मोहित रूप युक्त थे l आपने 8 वर्ष की आयु से गांव से 5 कोस की दूरी पर स्थित कलावतीपुर में पूज्य कुलगुरू के आश्रम में विद्याध्ययन प्राप्त किया l उसके बाद ये साधू महात्माओं की प्रेरणा से प्रेरित होकर कांशी के लिए विद्याध्ययन के लिए चल दिए l पहले वो अपने गुरू के पास जा रहे थे तो रास्ते में महात्मामंडली के साथ रामनवमी का मेला मनाने चल पड़े l

वहां से प्रयागराज मेले में आपने भारतद्वाज ऋषि के आश्रम में निवास किया l इस समय आपकी उम्र 18 वर्ष की थी l जब आपको गंगा में स्नान करते करते तीन दिन हो चुके ,तो अर्धरात्रि में जब आप भजन में तत्पर थे , उसी समय गंगाजी ने देवी का रुप धारण करके आपके चरणों का स्पर्श किया और कहा कि मैं अब निर्मल पवित्र हो गई l तब आपने उनसे पूछा कि तुम कौन हो देवी जो इस प्रकार मेरी स्तुति कर रही हो l तब गंगा जी ने कहा कि राजा सगर के लड़के कपिल मुनि के श्राप से भस्म हो गए थे , तब उनको तारने के लिए मेरी तथा ब्रह्मा जी की तपस्या 3 पीढी तक की थी l तब ब्रह्मा जी के पूछने पर भागीरथी ने हाथ जोड़ कर अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए कहा कि हम गंगाजी को पृथ्वी पर ले जाना चाहते हैं l इस प्रकार मृत्युलोक पाप से कम्पित हो कर कहा कि मैं नहीं जाऊंगी l तब विष्णु ने मुझे बुलाकर कहा कि हे गंगे तुम मृत्युलोक में जाओ और राजा सगर के लडकों से लेकर जितने मृत्युलोक में पापी जन शुद्ध दिल से स्नान करने पर पाप मुक्त हो जायेंगे तत्उपरान्त ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम्हारे सभी दुख व पाप तब मुक्त होंगे जब अठ्ठाइसवे कलयुग के पांच हजार वर्ष के बाद हमारे परम प्रिय मुनिजन महामंत्र तारतम के उपासक प्रकट होंगे l आज विष्णुजी के वचन सत्य हो गए मैं आपके चरणों से पवित्र हो गई l गंगाजी ने कहा कि वे ब्रह्ममुनि आप ही हैं और गंगाजी फिर अन्तर्ध्यान हो गई l आपने 1 मास प्रयाग में रह कर महात्माओं के सत्संग का लाभ लिया l इसके बाद आप काशीपुरी आए और वहां पर आपने शंकर जी का दर्शन किया l गंगा किनारे उसी घाट पर चार बजे रात्रि को आप विद्या अध्ययन सागर में तल्लीन थे l आप को देख कर सरस्वती देवी ने प्रगट होकर प्रणाम किया l आप उनके रुप को देख कर घबराकर बोले हे मातेश्वरी आप कौन हैं l तब देवी ने उत्तर दिया मैं सरस्वती सर्व विद्यधिपति हूं l

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संवत 1636 के बाद आपने ब्रह्मचारी भेष का परित्याग कर परमहंस भेष धारण किया l

परमहंस भेष में संसार में विचरण करते हुए चित्रकूट होते हुए जगन्नाथपुरी , रामेश्वरपुरी , नासिक , पंचवटी , नर्मदा , गंगा , डाकोर , गिरनाल पाटन व सुदामापुरी , द्वारिकापुरी आकर 1 वर्ष रहे l इस समय आपकी उम्र 23 वर्ष थी l फिर वृन्दावन प्रस्थान किया l

श्री गोपाल मणि जी

आप उस समय विक्रम संवत 1653 में वर्ष के थे l

योगसाधन के आठ अंग , यम , नियम , आसन प्रणायाम प्रत्याहार , धारणा , ध्यान , एवं समाधि का विधि पूर्वक साधन व योग के षट् उपअंग सम दम उपरिती तितिक्षा समाधान व विश् वास तथा चक्र , दल , कमल अक्षर , रंग , नाणी , पंचतत्व देहवसान , जप , तथा मुद्रा बन्धन खेचरी सब योगसाधन पूरे किए l इन सब क्रियाओं के बाद समस्त सिधियां आपमें प्रवेश हो गई l

श्री गोपाल मणि जी

सतगुरु व परमहंस

श्री मंगल दास जी

श्री मंगल दास जी का जन्म विक्रम संवत 1953 (सन 18 अक्टूबर 1896) में आश्विन मास की द्वादशी को हुआ था l

इनका जन्म स्थान नेपाल के पूर्वी जिले इलम मेलबोटे में हुआ था l ये ब्राह्मण सपकोटा परिवार गोत्र कोडिल्य में पैदा हुए थे

विक्रम संवत 1955 में इनको बसंत पंचमी

मंगल दास जी को उनके माता-पिता केवल 15 माह की उम्र में असम रंगसाली बिहाली लेकर चले गए थे l विक्रम संवत 1955 में इनको बसंत पंचमी के दिन दीक्षा तारतम मंत्र प्राप्त हुआ I

श्री मंगल दास जी महाराज

श्री मंगल दास जी का जन्म विक्रम संवत 1953 (सन 18 अक्टूबर 1896) में आश्विन मास की द्वादशी को हुआ था l इनकी माता का नाम श्री मति नर्वदा बाई व पिता का नाम श्री कल्याण दास जी था l मंगल दास जी अपने परिवार में सबसे बड़े पुत्र थे I इनका जन्म स्थान नेपाल के पूर्वी जिले इलम मेलबोटे में हुआ था l ये ब्राह्मण सपकोटा परिवार गोत्र कोडिल्य में पैदा हुए थे I

मंगल दास जी को उनके माता-पिता केवल 15 माह की उम्र में असम रंगसाली बिहाली लेकर चले गए थे l विक्रम संवत 1955 में इनको बसंत पंचमी के दिन दीक्षा तारतम मंत्र प्राप्त हुआ I इनके छोटे भाई का नाम जगन्नाथ जी था l इनके गुरु श्री 108 पीताम्बर दास जी महाराज थे I मंगल दास जी जब 4 वर्ष के थे तभी इनके पिता का धाम गमन हो गया था I जब इनकी उम्र 7 वर्ष की हुई तब इनका यज्ञोपवित संस्कार हुआ I ये एक साधारण परिवार के थे l शुरू में इनका धर्म समाज और साहित्य में बहुत कम योगदान रहा l इन्होंने बहुत कम उम्र में ही पीताम्बर महाराज जी से श्री कृष्ण धर्म की दीक्षा ली थी I गुरु मंगल दास जी भारत के असम राज्य पहुंचे और आगे की शिक्षा के लिए वहीं रहे I

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गुरुजी मंगल दास जी का संदेश

“अगर मुझे अपने जीवन की चिंता है तो मुझे समाज की सेवा की भी चिंता है। समाज की सेवा तभी संभव है जब व्यक्ति निष्पक्ष हो। जब व्यक्ति का निजी उद्देश्य निःस्वार्थ सेवा में प्रकट होता है तो वह अपनी पवित्रता खो देता है। व्यक्ति को अपना नाम और यश भूलकर सेवा में समर्पित होना होगा, डर केवल ईश्वर का होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र की सेवा के लिए है। किसी व्यक्ति का महत्व उसके अपने समाज के प्रति सेवा से ही गौरवान्वित होता है। व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है। किसी को भी असुरक्षित नहीं होना चाहिए बल्कि समाज के प्रति सच्चा योगदान देने के लिए निरंतर बने रहना चाहिए। “

श्री मंगल दास जी महाराज

सतगुरु व परमहंस

श्री बाबा दयाराम साहब जी

बाबा दयाराम जी का प्रादुर्भाव ज्येष्ठ सुदी प्रथम विक्रम संवत 1785 सन 1728 के दिन जिला मिंट गुमरी (आज का पाकिस्तान) के गाँव कबीर वाला में हुआ था l

वर्ष 10 की अल्पायु में ही आपका सांसारिक वैभव से वैराग्य भाव था l आपके अंदर असंख्य गुणों को देखकर संत जन और परिवार जन आपको छोटी सी आयु में ही बाबा कहने लगे

वर्ष 15 की आयु तक आपने वेद वेदांत श्री मद भागवत, रामायण, श्रीमद्भागवत गीता सहित अनेकों धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था

आपका विश्वास था कि परमात्मा को पाने के लिए सतगुरु को पाना होगा l सतगुरु ऐसा हो जो पूर्ण ब्रह्म की पहचान कराए l आप सतगुरु की खोज में निकल पड़े I ऋषिकेश में आपने 3 वर्ष तक घोर तपस्या की लेकिन प्रभु दर्शन नही हुए l

श्री बाबा दयाराम साहब

बाबा दयाराम जी का प्रादुर्भाव ज्येष्ठ सुदी प्रथम विक्रम संवत 1785 सन 1728 के दिन जिला मिंट गुमरी (आज का पाकिस्तान) के गाँव कबीर वाला में हुआ था l आपके पिता श्री कन्हैया लाल प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे I आपकी माता श्री मति राधाबाई धर्म निष्ठ थी I आपके दो ज्येष्ठ भ्राता गोवर्धन दास और छबील दास थे l आपके माता पिता धार्मिक विचारों से ओतप्रोत थे l आपके जन्म उपरान्त विप्रो ने नवजात शिशु में महापुरूष के लक्षण देखकर आपका नाम दयाराम निश्चित किया l जन्म से ही आपकी वृत्ति धार्मिक थी I संसार की वस्तुओं का आपको कोई आकर्षण नही था l 10 वर्ष की अल्पायु में ही आपका सांसारिक वैभव से वैराग्य भाव था l आपके अंदर असंख्य गुणों को देखकर संत जन और परिवार जन आपको छोटी सी आयु में ही बाबा कहने लगे I 15 वर्ष की आयु तक आपने वेद वेदांत श्री मद भागवत, रामायण, श्रीमद्भागवत गीता सहित अनेकों धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था I

आपका विश्वास था कि परमात्मा को पाने के लिए सतगुरु को पाना होगा l सतगुरु ऐसा हो जो पूर्ण ब्रह्म की पहचान कराए l आप सतगुरु की खोज में निकल पड़े I ऋषिकेश में आपने 3 वर्ष तक घोर तपस्या की लेकिन प्रभु दर्शन नही हुए l आप पुनः गुरु खोज के लिए पैदल निकल पड़े I आप मथुरा काशी, रामेश्वरम, गया, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए द्वारिकापुरी पहुंचे l आपकी तपस्या और प्रेम लक्षणा भक्ति से प्रसन्न होकर वृंदावन बांके बिहारी श्री कृष्ण जी ने आपको दर्शन दिये और निर्देश दिया कि आप मलकाहास में परम हंस दरबारा सिंह जी की शरण में जाओ l वहां तुम्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त होगा l सन 1763 में परमहंस भाई दरबारा सिंह ने उनकी जिज्ञासा को देखकर उन्हें श्री तारतम्य मंत्र दिया और आध्यात्मिक दीक्षा प्रदान की l आपके श्री मुख से श्री तारतम्य वाणी चर्चा एवं श्री परमधाम की महिमा व नूरमय रंग महल का चित्रण सुनकर सभी नर नारी आनंद लेने लगे I आपके मुख से ब्रह्मज्ञान के प्रकाश की किरणें दूर दूर तक फैलने लगी l मलकाहांस में इतने अधिक श्रद्धालु जन आने लगे कि वह स्थान एक बड़ा तीर्थ बन गया I सन 1764 में सतगुरु भाई दरबारा सिंह जी ब्रह्मलीन हो गए तदुपरांत आपको उस स्थान का दायित्व सम्भालने के लिए आग्रह किया गया किन्तु आपने अपनी असमर्थता व्यक्त की l आपकी सलाह से तपस्वी संत भाई जीवन दास जी को मलकाहांस स्थान का दायित्व सोंपा और गादी पर बैठाया गया I

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सतगुरु व परमहंस

श्री परमेश्वरी बाई जी

ई सन् 1902 के एक शुभ दिन रियासत बहावलपुर

ई सन् 1902 के एक शुभ दिन रियासत बहावलपुर (वर्तमान पाकिस्तान) के एक छोटे से गाँव चकचौपा के एक ग़रीब घर में एक लड़की का जन्म हुआ । बहावलनगर की गद्दी के पू॰ महाराज श्री हरिदास जी के उत्तराधिकारी महाराज श्री वल्लभदास जी के आशीर्वाद स्वरूप इस बालिका का जन्म हुआ था । परमेश्वर की इस देन को परमेश्वरी नाम दिया गया ।

जब इनकी उम्र 10 वर्ष की थी तब इनके माता पिता चकचौपा से बहावलनगर आ गये

जब इनकी उम्र 10 वर्ष की थी तब इनके माता पिता चकचौपा से बहावलनगर आ गये और प्रणामी मंदिर के नज़दीक ही एक छोटे से घर में रहने लगे । बालिका प्रतिदिन वहाँ जाकर दर्शन ,ध्यान , पाठ इत्यादि किया करती थी । इस मंदिर में एक सेवाभावी महिला बुद्धाबाई थीं जो इनको तारतम सागर की चौपाइयाँ सुनाती थीं जो इनको कंठस्थ होने लगीं ।

श्री परम पूज्य परमेश्वरी बाई जी

ई सन् 1902 के एक शुभ दिन रियासत बहावलपुर (वर्तमान पाकिस्तान) के एक छोटे से गाँव चकचौपा के एक ग़रीब घर में एक लड़की का जन्म हुआ । उनके पिता का नाम कन्हैया लाल खुराना और माता का नाम आसोबाई था।माता पिता आनंद विभोर हो उठे । इससे पहले इनके दो बालकों की मृत्यु हो चुकी थी । बहावलनगर की गद्दी के पू॰ महाराज श्री हरिदास जी के उत्तराधिकारी महाराज श्री वल्लभदास जी के आशीर्वाद स्वरूप इस बालिका का जन्म हुआ था । परमेश्वर की इस देन को परमेश्वरी नाम दिया गया । बचपन से ही बालिका परमेश्वर के ही रूप को बनाकर उसी से ही खेलकर निमग्न रहती थी । संयोगवश 5 वर्ष की आयु में चेचक की वजह से आँखों की रोशनी चली गयी लेकिन अंदर के चक्षु खुल गये । इसी ने उनकी सुरता को परमात्मा के प्रति और दृढ़ कर दिया ।

जब इनकी उम्र 10 वर्ष की थी तब इनके माता पिता चकचौपा से बहावलनगर आ गये और प्रणामी मंदिर के नज़दीक ही एक छोटे से घर में रहने लगे । बालिका प्रतिदिन वहाँ जाकर दर्शन ,ध्यान , पाठ इत्यादि किया करती थी । इस मंदिर में एक सेवाभावी महिला बुद्धाबाई थीं जो इनको तारतम सागर की चौपाइयाँ सुनाती थीं जो इनको कंठस्थ होने लगीं ।

तारतम मंत्र ग्रहण करने की जिद्द के चलते तीन दिन तक अन्न जल का भी त्याग किया । मंत्र ग्रहण करने के बाद पूरे तीन महीने तक एकांत में तारतम मंत्र का अनहद जाप भी किया जिससे मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा । अब अंतःप्रेरणा से बालिका ने पद्मावतीपुरी की यात्रा की और वहाँ 22 दिन तक निराहार रहकर तपस्या भी की । अब इनकी इच्छा सेवा पूजा घर में लाने की थी । एक वर्ष बाद कालिम्पोंग के महाराज श्री मंगलदास जी एवं बहावलनगर के श्री मोहरीशाह तनेजा की मदद से पन्ना जी से सेवा पूजा लाकर इनके घर पधरायी गयी । अब तो उनकी खुशी का पारावार नहीं था उनकी सब इच्छा पूरी हो रहीं थीं ।

माता पिता की इनको विवाह बंधन में बांधने की लाख कोशिशें भी नाकामयाब रहीं । अपनी सारी जमा पूँजी लगाकर बहावलनगर में एक मंदिर का निर्माण करवाया ।

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ई सन् 1956 में आदर्शनगर जयपुर में बसंतपंचमी के दिन प्रणामी मंदिर की स्थापना की ।

समग्र श्री 108 कुलजम वाणी टीका सहित उनकी रसना पर स्थित हो चुकी थी । मंदिर में बालिकाओं और स्त्रियों का तांता बंध गया । मंदिर में सभी जन उनके प्रवचन सुनने को लालायित रहने लगे और इस तरह मंदिर में भजन कीर्तन और प्रवचन इत्यादि की प्रेम गंगा प्रवाहित होने लगी । नर, नारी ,बालक,बूढ़े उनको बहिन जी उर्फ बेबी जी कह कर पुकारते थे।

ई सन्1965में 5 जनवरी की रात को सवा एक बजे उनका ध्यानावस्था में ही धामगमन हुआ

आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ई सन् 1965 में 5 जनवरी की रात को सवा एक बजे उनका ध्यानावस्था में ही धामगमन हुआ । उन्होंने जिस मंदिर की स्थापना की थी उनको उसी मंदिर में समाधि दी गई । आज भी वह मंदिर बेबी जी का मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है ।

सतगुरु व परमहंस

श्री रामरतन दास जी

शास्त्र पुराण भेषपंथ खोजो, इन पैड़ों में पाइए नाहीं। सतगुरु न्यारा रहत सकल थें, कोई एक कुली में क्याहें ।।

हमारे सद्गुरु परमहंस 108 श्री राम रतन दास जी महाराज जिनका जन्म संवत् 1951 वैशाख बदी सप्तमी को पिता पंडित छज्जू जी एवं माता मगन देवी जी के घर ग्राम जड़ौदा जिला सहारनपुर में हुआ।

कारी कामरी रे, मोको प्यारी लागे तू। सब सिंगार को शोभा देवे, मेरा दिल बान्ध्या तुझसों।।

मार्ग में एक संत की शिक्षानुसार उन्होंने अपनी सारी वस्तुएं चादर, धोती कुर्ता, जूता इत्यादि त्याग दीं और कुर्ता फाड़ के लंगोटी बना ली। हाथ में लोटा, कंधे पर कमलिया रखे निर्गुण फकीरी वेश धारण कर स्वयं को बहुत हल्का महसूस किया।

परमहंस 108 श्री राम रतन दास जी महाराज की संक्षिप्त बीतक

शास्त्र पुराण भेषपंथ खोजो, इन पैड़ों में पाइए नाहीं।
सतगुरु न्यारा रहत सकल थें, कोई एक कुली में क्याहें ।।

मंगलाचरण: हम ऐसे सद्गुरु को प्रणाम करते हैं जो परब्रह्म के आनंदमई स्वरूप वाले हों, दिव्य ज्ञान के स्वरूप हों, सर्वश्रेष्ठ आनंद देने वाले हों, सर्व प्रकार के द्वंद्वों से परे हों और जिनका स्वरूप सदा निर्मल, एक रस, विशाल हृदय साक्षी रूप, त्रिगुण की माया से सदैव मुक्त हो।

ऐसे ही थे हमारे प्यारे सदगुरु महाराज जिन्होंने उत्तर भारत में जागनी की ज्योति से अपनी प्रेममयी मेहर द्वारा अनेकों दुखित दीनहीन अंगनाओं के जीवन को प्रकाशित कर, उनका जन्म धन्य कर दिया। वे थे हमारे सद्गुरु परमहंस 108 श्री राम रतन दास जी महाराज जिनका जन्म संवत् 1951 वैशाख बदी सप्तमी को पिता पंडित छज्जू जी एवं माता मगन देवी जी के घर ग्राम जड़ौदा जिला सहारनपुर में हुआ। जन्म का नाम झंडूदत्त रखा गया। झंडू दत्त बाल्य काल से ही संत स्वभाव, शील, संतोषी और धीर गंभीर थे। केवल 8 वर्ष की अल्पायु में पिता का देहांत हो गया। इसलिए उन्हें छोटे भाई बुद्धि दास के साथ अत्यंत दरिद्रता के दिन देखने पड़े। मां ने दोनों पुत्रों का पालन पोषण अत्यंत गरीबी में बड़ी कठिनाई से किया। और एक दिन प्लेग की महामारी में एकमात्र सहारा, मां भी चल बसी। उस समय उनकी अवस्था लगभग 13 वर्ष थी।

परब्रह्म ने ताऊ से इनके जीवन की कई बार रक्षा की। इनकी बुआ ने इनका पालन पोषण किया। 15 वर्ष की आयु में इनका विवाह अनिच्छा होने पर भी कर दिया गया। असमय माता-पिता के देहांत और बाल्यकाल से मिले धार्मिक संस्कार और सामाजिक दुश्वारियों के अनुभव से इन्हें संसार की असारता की पहचान हो गई थी। परिणाम स्वरुप मन में उस परमात्मा को जानने, पाने की इच्छा और वैराग्य प्रबल हो रहा था। 19 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते अनेकों जिज्ञासाओं की ज्वाला, जैसे मैं कौन हूँ, परमात्मा कौन है, कहाँ है, कैसा है, मेरा उससे संबंध क्या है, शाश्वत आनंद कहाँ है और कैसे मिलेगा आदि उनके हृदय में धधकने लगी और एक अर्धरात्रि वह निकल पड़े एक अनजान, दुर्गम और असाध्य लक्ष्य की ओर। उनकी नवजात कन्या के जन्म का मोह भी इस यात्रा को रोक न सका। धन और सामान के नाम पर उनके पास सवा रुपया, एक धोती कुर्ता और एक चादर थी।

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