सतगुरु ब्रह्मानंद है

सतगुरु व परमहंस

“सतगुरु ब्रह्मानंद है” परब्रह्म परमात्मा के आनंद अंग श्यामा जी धनी श्री देवचंद्र जी के स्वरुप में हमारे सतगुरु हैं I सतगुरु और पूर्णब्रह्म में बहुत सूक्ष्म सा भेद है I यह भेद इतना सूक्ष्म है कि कहा जा सकता है कि दोनों में कोई भेद ही नहीं है l इस संसार की लीला में सतगुरु परब्रह्म नहीं होते किन्तु उनकी आत्मा परब्रह्म की दुल्हन होती है I उनके अन्दर प्रियतम का जोश आवेश और हुक्म विराजमान होता है I इसलिए सतगुरु तो परब्रह्म से मिलने का एक मात्र साधन और परब्रह्म का प्रतिबिंब ही है I घड़े के जल के उस प्रतिबिंब की तरह सूर्य के प्रतिबिंब को देखकर सूर्य की पहचान हो जाती है वैसे ही सतगुरु के स्वरूप में देखकर परब्रह्म की पहचान हो जाती है क्योंकि उनके हृदय में समस्त ब्रह्म आत्माओं के साथ परब्रह्म विराजमान होते हैं l

हमारे प्रेरणास्रोत सतगुरु व परमहंस

श्री राम रतन दास जी

सतगुरु व परमहंस

संक्षिप्त परिचय

शास्त्र पुराण भेषपंथ खोजो, इन पैड़ों में पाइए नाहीं।
सतगुरु न्यारा रहत सकल थें, कोई एक कुली में क्याहें ।।

मंगलाचरण - हम ऐसे सद्गुरु को प्रणाम करते हैं जो परब्रह्म के आनंदमई स्वरूप वाले हों, दिव्य ज्ञान के स्वरूप हों, सर्वश्रेष्ठ आनंद देने वाले हों, सर्व प्रकार के द्वंद्वों से परे हों और जिनका स्वरूप सदा निर्मल, एक रस, विशाल हृदय साक्षी रूप, त्रिगुण की माया से सदैव मुक्त हो।

ऐसे ही थे हमारे प्यारे सदगुरु महाराज जिन्होंने उत्तर भारत में जागनी की ज्योति से अपनी प्रेममयी मेहर द्वारा अनेकों दुखित दीनहीन अंगनाओं के जीवन को प्रकाशित कर, उनका जन्म धन्य कर दिया। वे थे हमारे सद्गुरु परमहंस 108 श्री राम रतन दास जी महाराज जिनका जन्म संवत् 1951 वैशाख बदी सप्तमी को पिता पंडित छज्जू जी एवं माता मगन देवी जी के घर ग्राम जड़ौदा जिला सहारनपुर में हुआ। जन्म का नाम झंडूदत्त रखा गया। झंडू दत्त बाल्य काल से ही संत स्वभाव, शील, संतोषी और धीर गंभीर थे। केवल 8 वर्ष की अल्पायु में पिता का देहांत हो गया। इसलिए उन्हें छोटे भाई बुद्धि दास के साथ अत्यंत दरिद्रता के दिन देखने पड़े। मां ने दोनों पुत्रों का पालन पोषण अत्यंत गरीबी में बड़ी कठिनाई से किया। और एक दिन प्लेग की महामारी में एकमात्र सहारा, मां भी चल बसी। उस समय उनकी अवस्था लगभग 13 वर्ष थी। परब्रह्म ने ताऊ से इनके जीवन की कई बार रक्षा की। इनकी बुआ ने इनका पालन पोषण किया। 15 वर्ष की आयु में इनका विवाह अनिच्छा होने पर भी कर दिया गया। असमय माता-पिता के देहांत और बाल्यकाल से मिले धार्मिक संस्कार और सामाजिक दुश्वारियों के अनुभव से इन्हें संसार की असारता की पहचान हो गई थी। परिणाम स्वरुप मन में उस परमात्मा को जानने, पाने की इच्छा और वैराग्य प्रबल हो रहा था। 19 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते अनेकों जिज्ञासाओं की ज्वाला, जैसे मैं कौन हूँ, परमात्मा कौन है, कहाँ है, कैसा है, मेरा उससे संबंध क्या है, शाश्वत आनंद कहाँ है और कैसे मिलेगा आदि उनके हृदय में धधकने लगी और एक अर्धरात्रि वह निकल पड़े एक अनजान, दुर्गम और असाध्य लक्ष्य की ओर। उनकी नवजात कन्या के जन्म का मोह भी इस यात्रा को रोक न सका। धन और सामान के नाम पर उनके पास सवा रुपया, एक धोती कुर्ता और एक चादर थी।

श्री निजानंद आश्रम, रतनपुरी, JGWG+G9W, शेरपुर, उत्तर प्रदेश 233231, भारत

उन्होंने अपना लक्ष्य मथुरा श्री कृष्ण दर्शन का बनाया। मार्ग में तीन दिनों तक किसी ने भी भोजन को नहीं पूछा। आपका विशेष संकल्प था कि किसी के भी आगे कुछ भी ना मांगना, अभाव में भी परमात्मा के भाव में मग्न रहे। मार्ग में एक सेठ ने भूख से मुख मलिन देखकर बड़े भाव से भोजन करवा कर दक्षिणा में लोटा दिया। अलीगढ़ से आगे अंग्रेज अफसर ने फिजी दीप को बसाने के लिए इनको भी पकड़ लिया, परब्रह्म की कृपा से उनकी कैद (कलकत्ता) से छूटकर बनारस पहुंचे और मन में विद्या अध्ययन का विचार आया, लेकिन अंतरात्मा तो विद्या को परमात्मा की राह में रोड़ा मान रही थी। इस असमंजस की अवस्था में एक तेजोमय संत के परामर्श से पढ़ने का विचार छोड़ जगन्नाथ दर्शन की राह पकड़ी, मार्ग में अनेक विलक्षण संतों के खट्टे मीठे अनुभवों के साथ पैदल जंगल वन लांघते परब्रह्म की खोज में चले। अल्पाहार करते हुए भी वह लगभग 17 मील प्रतिदिन चल लेते थे। मार्ग में एक संत की शिक्षानुसार उन्होंने अपनी सारी वस्तुएं चादर, धोती कुर्ता, जूता इत्यादि त्याग दीं और कुर्ता फाड़ के लंगोटी बना ली। हाथ में लोटा, कंधे पर कमलिया रखे निर्गुण फकीरी वेश धारण कर स्वयं को बहुत हल्का महसूस किया।

कारी कामरी रे, मोको प्यारी लागे तू।
सब सिंगार को शोभा देवे, मेरा दिल बान्ध्या तुझसों।।

श्री रामरतन दास जी

महाराज श्री जी रात्रि में अपने मन को संयमित करने के लिए बहुत फटकार लगाते व ध्यान करते थे। एक दिन ध्यान अवस्था में किसी अज्ञात शक्ति ने उन्हें चेताने के लिए बांह मरोड़ी कुछ क्षणों के पश्चात सहसा एक प्रकाश पुंज के तेज से जंगल का कण कण चमक उठा और एक दिव्य पुरुष प्रकट होकर बोला कि आप हमसे फकीरी ले लें। महाराज जी बोले कि अभी तक हमें कोई भी योग्य नहीं दिखा जिसको हम गुरु बनाएं, अगले ही पल सब अदृश्य हो गया। इस घटना का चिंतन करते हुए जगन्नाथ पुरी पहुंचे। मार्ग में एक अटपटे रहस्यमई अघोरी महात्मा का संग मिला। पुरी में भी महाराज जी को भगवान के स्थान पर अन्य अनेकों मंदिरों की तरह प्रतिमा का ही दर्शन हुआ, यहां भी उनके मन को शांति नहीं मिली अब मन में विचार आया कि किसी ब्रह्मनिष्ठ संत को गुरु धारण किए बिना भटकना व्यर्थ है। अतः वहां से रामेश्वरम होते हुए हिमाचल पर्वत के एक महादेव मंदिर में पहुंचे। अब तक महाराज श्री जी अपने आहार को घटाते घटाते पांचवें दिन केवल एक समय फलाहार तक ले आए थे।

श्री रामरतन दास जी

रात्रि में फिर किसी अदृश्य दिव्य शक्ति ने तीसरी बार बांह मरोड़ कर सावचेत किया और कहा कि आपके लिए अभी यहां महादेव जी अपनी मंडली सहित पधारने वाले हैं, यह दर्शन मानवों के लिए दुर्लभ है। अत्यंत तेज पुंज में महादेव जी प्रकट हुए और उन्होंने अन्य प्रकट हुए संतों के साथ महाराज जी को भी प्रसाद देना चाहा तो महाराज श्री जी का उत्तर था कि 5 दिन में फलाहार का मेरा नियम भंग हो जाएगा । किंतु दिव्य पुरुष के विवश करने पर महादेव जी से प्रसाद ले लिया। उन्होंने कहा, आपने कठिन प्रण लिया है, आप एक माह यहीं रुको आगे आपका समाधान हो जाएगा। तद उपरांत महाराज श्री जी तिरुपति बालाजी पहुंचे। यहां तक आते-आते उनकी वैराग्य, तपस्या और विरह की वह चरम सीमा पहुंच गई थी कि तन पर लंगोटी भी नहीं रही, पेट पीठ तक जा पहुंचा था, आंखें धंस गई थीं, कमर कमान की तरह मुड़ गई थी और शरीर हड्डियों की गठरी प्रतीत होता था। सद्गुरु व परब्रह्म की खोज में ऐसा दुर्लभ असंभव तप केवल कोई बिरला महापुरुष ही कर सकता है। मार्ग में एक दिव्य संत ने प्रकट होकर समझाया कि शरीर त्यागने का अभी समय नहीं है। परमात्मा इतना सस्ता नहीं है, आगे आपको सद्गुरु मिलेंगे और राह दिखायेंगे। बालाजी से आगे बढ़ते हुए अपने मन में सद्गुरु मिलन की लालसा लेकर हौजपिट, पक्षी तीर्थ, पाटनशिला, परमेश्वर, पंपा सरोवर, तुंगभद्रा नदी के किनारे पहुंचे तो सामने ऋषिमुख पर्वत पर अति घने वन में मतंग ऋषि के आश्रम का दर्शन करते हुए आगे बढ़े।

श्री रामरतन दास जी

एक दिन फिर से दिव्य पुरुष ने महाराज जी को ध्यान अवस्था से जगाया और विनती कर कहा आप दिन-रात निर्भय होकर वन जंगल में विचरते हो, आपकी यात्रा को सुलभ करने हेतु आप कृपया इन हनुमान जी की सेवा को स्वीकारिए। महाराज जी को अनिच्छा होने पर भी स्वीकार करनी पड़ी। परिणाम स्वरुप बिना थके और तीव्र गति से अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए 2 वर्ष बाद जन्मभूमि जड़ौदा के निकट घने जंगल जूड़ में महादेव मंदिर पर पहुंचे वहां लगभग 6 वर्षों तक "धर्मसभा संगठन" का रात दिन सत्संग चला और कुछ लौकिक लीलाएं भी की। तत्पश्चात पुनः सतगुरु की खोज में निकल पड़े उसी पहले परिक्रमा मार्ग पर हिमाचल, जगन्नाथ, तांडूर, गुलबर्गा में मुचकन्द और संकट मोचन (ईसा मूसा) नाम की नदी किनारे ढाई वर्ष बिता कर शोलापुर, पंढरपुर, मनमाड, कल्याण, वालकेश्वर, मुंबई, द्वारका, दानापुरी, अहमदाबाद, राजकोट, सूरत, नासिक, पंचवटी, औझड़, चन्दौर, तरीडिंग, अमलनेर, द्तिया होते हुए सोनगिर जा पहुंचे।

श्री रामरतन दास जी

एक सीताराम मंदिर में जा ठहरे उन दिनों महाराज जी के ध्यान की अवधि 8 घंटे तक पहुंच चुकी थी। एक दिन महाराज जी को योग समाधि में देख कर लोगों ने समझा कि इस "सीता रामी" (ग्रामीणों द्वारा पुकारा गया नाम) साधु का प्राणांत हो चुका है, सब ने क्रिया कर्म की तैयारी शुरू कर दी। इतने में ही वहां दिव्य पुरुष सद्गुरु राजनारायण दास जी महाराज पहुंचे उन्होंने निरीक्षण कर सबको फटकारा और कहा ये मरे नहीं है, योगावस्था में हैं। उन्होने अपनी झोली में से चरणामृत मुख पर छिड़ककर जागृत किया। इन आदर्श पुरुष से महाराज जी को क्षर ,अक्षर और परमधाम के 25 पक्ष आदि का दिव्य सत्संग मिलने लगा।

अब महाराज जी को जिस आनंद की खोज थी वह प्राप्त होने लगा। सद्गुरु राजनारायण दास जी महाराज इन पर अत्यंत लाड़ लुटा रहे थे। वे सोमेश्वर महादेव मंदिर में दोने में फूलों से ढक कर प्रसाद, गजरे और फूल मालाएं लेकर आते एवं प्रसाद अपने हाथों से खिलाते और हार गजरे भी महाराज जी को पहनाते। सद्गुरु द्वारा परमधाम की अलौकिक चर्चा से मौजों के दरवाजे खुल गए थे और आतम को करार मिलने लगा था। एक दिन महाराज जी ने सदगुरु से उनके हृदय में विराजमान होने की प्रार्थना की, उनकी अनुनय पर सद्गुरु राजनारायण दास जी ने उनके हृदय में आसन जमा लिया। उस समय महाराज जी को अपने सद्गुरु का स्वरूप श्री राज जी के समान प्रतीत हुआ जो अब हृदय में आकर बैठ गए थे। पूर्ण अवस्था प्राप्त कर सद्गुरु से भ्रमण की आज्ञा लेकर सोनगिर से प्रस्थान किया, मार्ग में विधवा के पुत्र को जीवित करने की लीला, मुड़ावद में पांजरा नदी में बाढ़ का सचेत करना, शिरपुर में जंगलात अफसर को प्रबोध देना, रामानंद महात्मा को तिल्ली की बीमारी से मुक्त कर कलकत्ते पहुंचे। वहां सत्संग से जगत को निहाल करते हुए नेपाल काठमांडू में पशुपतिनाथ को दर्शन देकर अपनी बुआ के गांव मुजाहिदपुर होते हुए अंततः अपनी जन्म और जागनी की भूमि जड़ौदा, शेरपुर पहुंचकर कुटिया डाल ली। इधर जन्मभूमि पर महाराज श्री जी को गए हुए वर्षों बीतने पर सब गांव वाले उनको मृत मान चुके थे और उनकी पत्नी चावली देवी बड़ी कठिनाइयों से बच्चों का भरण पोषण कर रही थीं।

उनकी कन्या कलावती अब बड़ी हो गई थी तो परिवारजन उसके विवाह करने की बात करने लगे लेकिन पिता विहीन कन्या के विवाह का खर्च कौन वहन करें, समाज में यह चर्चा जोरों पर थी कि अचानक 7 वर्षों बाद महाराज जी अपने गांव पहुंचे। उनका बैरागी वेश देखकर गांव वाले उपहास में धर्मपत्नी को बोले कि आपके पतिदेव बहुत धन कमा कर लाए हैं। अतः धर्म पत्नी ने भी पुत्री के विवाह के लिए यही मांग दोहरा दी । चचेरे भाई गंगाराम ने उपहास उड़ाते हुए कहा कि ये फकीर पुत्री का विवाह क्या करेगा खिचड़ी बनवाकर खिलवा देगा। भरत सिंह ने महाराज जी की बहुत अनुनय विनय की और कहा कि आपकी पुत्री के विवाह का दिन निश्चित हो चुका है, आपके पास जो कुछ भी धन है दे दीजिए । महाराज जी बोले – “हम सांसारिक बंधनों से ऊपर उठ चुके हैं, भाई ये जिसका काम है वही करेंगे वे नेत्र वाले हैं स्वयं देख रहे हैं सद्गुरू महाराज सब ठीक करेंगे।“ तब भरत सिंह बोला कि सदगुरु जी से ही मांग लिजिए। महाराज जी बोले – “मैंने जीवन में किसी से कुछ नहीं मांगा तो आज क्या मांगूंगा?“ अतः भरत सिंह ने निराश होकर कहा कि आप कह नहीं सकते तो कम से कम चिट्ठी तो लिख दीजिए। बड़ी मुश्किल से महाराज जी ने आग्रह माना और कहा तुम जो चाहे लिख दो मैं हस्ताक्षर कर दूंगा। भरत सिंह ने बड़े प्रेम से सदगुरु महाराज जी को पत्र में विवाह का सारा वृतांत लिखा और प्रेम निमंत्रण भी दिया गया महाराज जी ने वह पत्र बाल्टी में रखें पानी में डलवाकर धुलवा दिया और भरत सिंह से कहा जा चिट्ठी डाक में चली गई, निश्चिंत होकर विवाह की तैयारी करो। ठीक तीसरे दिन एक डाकिया 16 रुपए का मनी ऑर्डर और एक पत्र लेकर आया जिसमें उसी पत्र का जवाब था और तीसरे दिन सेठ लक्ष्मी चंद्र के आने की सूचना भी थी। तीसरे दिन सेठ लक्ष्मी चंद जी जड़ौदे पहुंच गए और विवाह का सारा खर्चा पंडित नकली और भरत सिंह को दिया। बड़े धूमधाम से कलावती का विवाह संपन्न हुआ और बारात का अंतिम दिन का भोजन महाराज जी की तरफ से हुआ जिसमें सभी मेवाओं को डालकर शुद्ध देसी घी की खिचड़ी खिलाई गई। इस प्रकार सतगुरु महाराज जी की मेहर से असंभव कार्य देखकर सारे गांव वाले चकित और आनंदित हुए।

भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित हुए अनेकों पंजाबी सुंदर साथ जिनका घर, परिवार, धन सब कुछ वहां छूट गया था लूट लिया गया था। उन सब को महाराज श्री जी ने शेरपुर में न केवल आश्रय दिया बल्कि वस्त्र, धन, भोजन और अपनी अलौकिक मेहर से मालामाल कर दिया। सारे सुंदर साथ उस दिन से आज तक महाराज श्री जी का शुकराना अदा कर रहे हैं। इस प्रकार की कई लीलाएं महाराज जी ने यहां संसार की माया से व्यथित और त्रितापों से जल रहे सुंदरसाथ को अपनी करुणा भरी दृष्टि को डालकर और "तारतम वाणी" (जिनको वे सोनगिर से सर पर रखकर नंगे पांव लाए थे) की चर्चा से उनको जाहिरी और बातूनी संपदा से मालामाल कर दिया।

महाराज श्री जी ने अपने सुंदरसाथ को गांव-गांव शहर-शहर जाकर जगाया उनकी जागनी का क्षेत्र पश्चिम उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और सुदूर पंजाब तक फैला था। 12 अक्टूबर सन 1964 को महाराज श्री जी ने अपनी सुरता को धाम की तरफ फिराया आज हम सब निजानंद रूपी अमृत का जो पान कर रहे हैं ये सब उन्हीं की कृपा से संभव हो रहा है। हम सब ऐसे अपने प्यारे सतगुरु महाराज श्रीजी के श्री चरणों में बारंबार प्रणाम करते हैं। सभी सुंदर साध जी के श्री चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।

श्री रामरतन दास जी

सप्रेम प्रणाम जी !

नोट :- इतनी विस्तृत जीवनी को कुछ लाइनों में समेटना हमारे लिए असंभव है, इसलिए छूटे हुए प्रसंगों और त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हैं।

CREDITS – प्रताप जी द्वारा लिखित महाराज श्री जी की बीतक

सतगुरु व परमहंस संक्षिप्त परिचय पढ़ने के लिए और समय निकालने के लिए धन्यवाद।
हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप हमें अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दें।