सतगुरु ब्रह्मानंद है

सतगुरु व परमहंस

“सतगुरु ब्रह्मानंद है” परब्रह्म परमात्मा के आनंद अंग श्यामा जी धनी श्री देवचंद्र जी के स्वरुप में हमारे सतगुरु हैं I सतगुरु और पूर्णब्रह्म में बहुत सूक्ष्म सा भेद है I यह भेद इतना सूक्ष्म है कि कहा जा सकता है कि दोनों में कोई भेद ही नहीं है l इस संसार की लीला में सतगुरु परब्रह्म नहीं होते किन्तु उनकी आत्मा परब्रह्म की दुल्हन होती है I उनके अन्दर प्रियतम का जोश आवेश और हुक्म विराजमान होता है I इसलिए सतगुरु तो परब्रह्म से मिलने का एक मात्र साधन और परब्रह्म का प्रतिबिंब ही है I घड़े के जल के उस प्रतिबिंब की तरह सूर्य के प्रतिबिंब को देखकर सूर्य की पहचान हो जाती है वैसे ही सतगुरु के स्वरूप में देखकर परब्रह्म की पहचान हो जाती है क्योंकि उनके हृदय में समस्त ब्रह्म आत्माओं के साथ परब्रह्म विराजमान होते हैं l

हमारे प्रेरणास्रोत सतगुरु व परमहंस

श्री परमेश्वरी बाई जी

सतगुरु व परमहंस

संक्षिप्त परिचय

ई सन् 1902 के एक शुभ दिन रियासत बहावलपुर (वर्तमान पाकिस्तान) के एक छोटे से गाँव चकचौपा के एक ग़रीब घर में एक लड़की का जन्म हुआ | उनके पिता का नाम कन्हैया लाल खुराना और माता का नाम आसोबाई था।माता पिता आनंद विभोर हो उठे | इससे पहले इनके दो बालकों की मृत्यु हो चुकी थी | बहावलनगर की गद्दी के पू॰ महाराज श्री हरिदास जी के उत्तराधिकारी महाराज श्री वल्लभदास जी के आशीर्वाद स्वरूप इस बालिका का जन्म हुआ था | परमेश्वर की इस देन को परमेश्वरी नाम दिया गया | बचपन से ही बालिका परमेश्वर के ही रूप को बनाकर उसी से ही खेलकर निमग्न रहती थी | संयोगवश 5 वर्ष की आयु में चेचक की वजह से आँखों की रोशनी चली गयी लेकिन अंदर के चक्षु खुल गये | इसी ने उनकी सुरता को परमात्मा के प्रति और दृढ़ कर दिया |

जब इनकी उम्र 10 वर्ष की थी तब इनके माता पिता चकचौपा से बहावलनगर आ गये और प्रणामी मंदिर के नज़दीक ही एक छोटे से घर में रहने लगे | बालिका प्रतिदिन वहाँ जाकर दर्शन ,ध्यान , पाठ इत्यादि किया करती थी | इस मंदिर में एक सेवाभावी महिला बुद्धाबाई थीं जो इनको तारतम सागर की चौपाइयाँ सुनाती थीं जो इनको कंठस्थ होने लगीं |

तारतम मंत्र ग्रहण करने की जिद्द के चलते तीन दिन तक अन्न जल का भी त्याग किया | मंत्र ग्रहण करने के बाद पूरे तीन महीने तक एकांत में तारतम मंत्र का अनहद जाप भी किया जिससे मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा | अब अंतःप्रेरणा से बालिका ने पद्मावतीपुरी की यात्रा की और वहाँ 22 दिन तक निराहार रहकर तपस्या भी की | अब इनकी इच्छा सेवा पूजा घर में लाने की थी | एक वर्ष बाद कालिम्पोंग के महाराज श्री मंगलदास जी एवं बहावलनगर के श्री मोहरीशाह तनेजा की मदद से पन्ना जी से सेवा पूजा लाकर इनके घर पधरायी गयी | अब तो उनकी खुशी का पारावार नहीं था उनकी सब इच्छा पूरी हो रहीं थीं |

श्री परम पूज्य परमेश्वरी बाई जी

माता पिता की इनको विवाह बंधन में बांधने की लाख कोशिशें भी नाकामयाब रहीं | अपनी सारी जमा पूँजी लगाकर बहावलनगर में एक मंदिर का निर्माण करवाया |

देश विभाजन के बाद सूरत में कुछ दिन रहने के बाद जयपुर आकर रहने लगे |

ई सन् 1956 में आदर्शनगर जयपुर में बसंतपंचमी के दिन प्रणामी मंदिर की स्थापना की | समग्र श्री 108 कुलजम वाणी टीका सहित उनकी रसना पर स्थित हो चुकी थी | मंदिर में बालिकाओं और स्त्रियों का तांता बंध गया | मंदिर में सभी जन उनके प्रवचन सुनने को लालायित रहने लगे और इस तरह मंदिर में भजन कीर्तन और प्रवचन इत्यादि की प्रेम गंगा प्रवाहित होने लगी | नर, नारी, बालक बूढ़े उनको बहिन जी उर्फ बेबी जी कह कर पुकारते थे।

श्री परम पूज्य परमेश्वरी बाई जी

आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ई सन् 1965 में 5 जनवरी की रात को सवा एक बजे उनका ध्यानावस्था में ही धामगमन हुआ | उन्होंने जिस मंदिर की स्थापना की थी उनको उसी मंदिर में समाधि दी गई | आज भी वह मंदिर बेबी जी का मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है |

परम पूज्य बेबी परमेश्वरी बाई जी के जीवन की सादगी, सहनशीलता, सेवा, प्रेम, त्याग, निष्ठा, एवं श्री राज जी महाराज से अनन्य प्रेम के गुणों को हम भी अपने जीवन का आदर्श बनायें | तब हमारा जीवन भी उन्हीं की तरह सुगंधित होने लगेगा |

सप्रेम प्रणाम जी !

सतगुरु व परमहंस संक्षिप्त परिचय पढ़ने के लिए और समय निकालने के लिए धन्यवाद।
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