सतगुरु व परमहंस
                                संक्षिप्त परिचय
                                श्री बीतक साहब के रचयिता स्वामी श्री लालदास जी पोरबंदर
                                        (सुदामापुर- महात्मा गांधी जी
                                        की जन्मभूमि)  काठियावाड़ के प्रतिष्ठित व्यापारी थे। पोरबंदर में महात्मा
                                    गांधी जी का
                                    घर है,जिसे आजकल कीर्ति भवन कहते हैं। कीर्ति भवन से सटा हुआ ही प्रणामी मंदिर है। यह
                                    मंदिर ही लालदास जी का पुराना घर है।
                                
                                ठठ्ठानगर में श्री लालदास जी का बहुत बड़ा व्यापार था। उनके पास व्यापार करने के लिये
                                    बहुत से जहाज थे। व्यापारियों में श्री लालदास जी “लक्ष्मण
                                        सेठ” के नाम से प्रख्यात थे।
                                    धर्म प्रिय होने के कारण उनको गीता-भागवतादि शास्त्रों में विशेष रूचि थी। धर्म प्रचार
                                    करते हुए जिस समय श्री प्राणनाथ जी ठठ्ठानगर पधारे, उस समय चतुरदास नामक एक पुष्करन
                                    ब्राह्मण के द्वारा श्री लालदास जी (लक्ष्मण सेठ) ने श्री प्राणनाथ जी के दर्शन किये।
                                    वहां श्री प्राणनाथ जी से तारतम मंत्र की दीक्षा ले ली।
                            
                            
                                एक दिन श्री लालदास जी जब अपने बाग में टहल रहे थे, तो
                                        जिन्दादास माली ने कहा कि सेठजी! बिना विचारे ही आपने परमधाम का ज्ञान ग्रहण कर
                                        लिया अर्थात् जिनकी चर्चा आप सुनने गए थे क्या उनके स्वरूप को आपने पहचाना है?
                                        जिन्दादास माली से मार्कण्डेय जी का दृष्टान्त  सुनने के पश्चात् श्री लालदास जी की
                                        अन्तर्दृष्टि खुल गई और उन्होंने मूल मिलावे की झलक देखी। श्री लालदासजी की
                                        अन्तर्दृष्टि खुल जाने पर उन्हें अखण्ड धाम की शोभा का भी दर्शन होने लगा और श्रीजी
                                        को साक्षात् अक्षरातीत के रूप में देखा ।
                                
                                
                                    
                                    महामति श्री लालदासजी 
                                 
                                  वि.स.1727 में  श्री लालदास जी सुदामापुर पहुंचे। वहां विट्ठलेस
                                        गोंसाई के अनुयायी वैष्णव लोग श्री लालदास जी की बहुत अधिक निंदा करने लगे। वे लोग
                                        कहने लगे कि यह कौन सा चूहों वाला पंथ आ गया है? ये लोग चूहे के पैरों में घुंघरू
                                        बांध देते हैं और जब चूहा भोग के थाल को खाने आता है तो घुंघरू की आवाज आने से कहते
                                        हैं कि हमारे यहां साक्षात् श्री कृष्ण जी भोजन करने आते हैं।
                                        चौपाई: 
                                         
                                        “धरम उंदरियों पैदा भयो, पांव बांधत घूंघरी । 
                                        थाल धरे परदा करे, देखो ऐसी राह चली॥” बी.सा. 31/90 
                                
                                
                                    धामधनी ने चाहा कि श्री लालदास जी माया के झंझटों को छोड़कर जागनी कार्य में श्रीजी के
                                    प्रमुख सहयोगी बनें इसलिये धामधनी की प्रेरणा से उनकी दुकान में आग लग गई। उनके माल
                                    से भरे हुए जहाज भी समुद्र में डूब गए। जब उनके पास माया का कुछ भी धन नहीं रह गया, तब
                                    उन्होंने माया का सारा व्यवहार छोड़ दिया और संसार से अपना सारा ध्यान हटाकर धामधनी के
                                    चरणों में लगा लिया।
                                
                                
                                    
                                    महामति श्री लालदासजी 
                                 
                                अब श्री लालदासजी ने प्रण लिया कि जब तक मैं नवतनपुरी जाकर सद्गुरू महाराज की गादी पर
                                    विराजमान बिहारी जी के दर्शन नहीं करूंगा तब तक मैं अन्नग्रहण नहीं करूंगा। इस प्रकार
                                    वे ठठ्ठानगर से चले और मगरोल पाटन आए तो व्यापारियों के द्वारा रखवाए हुए पहरेदारों ने
                                    उन्हें रोक लिया और कहा कि आप नवतनपुरी न जाकर सूरत जायें ।
                                अब श्री लालदासजी दीपबंदर आए, वहां पंद्रह दिन रहे, उसके बाद घोघा से नाव के द्वारा सूरत
                                    बंदरगाह आए।
                                    इस समय   वि. स. 1729 का  समय चल रहा था। श्री लालदासजी ने श्रीजी के दोनों चरण कमलों में
                                    प्रणाम किया। श्री लालदास जी को देखकर श्रीजी बहुत ही आनंदित हुए। उन्होंने अपने श्री
                                    मुख से श्री लालदास जी को भोजन करने के लिये आग्रह किया। श्री लालदास जी ने कहा कि हे
                                    धाम धनी! जब तक मैं बिहारी जी के चरणों में प्रणाम नहीं करूंगा तब तक मैं अन्न ग्रहण
                                    नहीं करूंगा। श्रीजी ने कहा कि तुम्हारा प्रण पूरा हो चुका है, अब तुम्हें बिहारी जी के
                                    दर्शन के लिये नवतनपुरी जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
                                
                                उसके बाद जब श्रीजी ने सूरत से प्रस्थान किया तो 500 सुन्दरसाथ के साथ-साथ श्री लालदास
                                    जी भी जागनी कार्य के लिए श्रीजी के साथ-साथ चल पड़े। वे खाली हाथ थे। उन्होंने अंतिम
                                    श्वास तक सेवा धर्म निभाया।
                                    चौपाई: 
                                     
                                    “लालदास संग चले, खाली लेकर हाथ। 
                                    निबहे आखर लों ,चले श्री राज के साथ ।।”
                                    बी.सा.33/11
                                    
                                
                                
                                    
                                    महामति श्री लालदासजी 
                                 
                                जब श्रीजी दिल्ली पहुंचे वहां   श्रीजी ने श्री लालदास जी को "कागद" कारखाने की शक्ति दी 
                                    जिससे श्री लालदास जी से वेद-कतेब और सभी धर्मग्रन्थों के रहस्य खुलने लगे। श्री लालदास
                                    जी बारह मोमिनों में भी अग्रसर रहे। श्री लालदास जी श्रीजी के साथ हरिद्वार भी गए, फिर
                                    वहां से दिल्ली आए और कुरान की गुह्य बातें जानकर कुरान को हिन्दी में अनुवाद करवाने
                                    में श्रीजी के अंग-संग रहे और सात निशानों का संदेश औरंगजेब तक पहुंचाने में भी श्री
                                    लालदास जी अग्रसर रहे। साथ में उनकी पत्नी लालबाई भी प्रमुख रहीं और उनकी बेटी श्याम
                                    बाई और दामाद रामराय भी श्रीजी की सेवा में समर्पित हो गए। आखिर तक पूरा परिवार श्रीजी
                                    के स्वरूप की पहचान कर सेवा में समर्पित हो गया ।
                                  वि.सं. 1737 में  मंदसौर में श्री लालदास जी ने इब्राहिम से कुरान का हिन्दी में अनुवाद
                                    भी करवाया। श्रीजी ने बुढ़ानपुर से श्री लालदास जी को कुरान के प्रश्नों की एक किताब
                                    देकर दिल्ली के काज़ी शेख इस्लाम और मुफ्ती अब्दुल रहमान के पास भेजा। वे दोनों श्री
                                    लालदासजी को मारना चाहते थे। इस बीच श्रीजी ने पत्र के द्वारा संदेश भेजा की तुम पत्र
                                    पढ़ते ही वहां से चल देना और वहां पानी भी मत पीना । श्री लालदास जी के ऊपर श्री
                                    प्राणनाथ जी की अलौकिक कृपा थी जिससे श्री लालदास जी साक्षात् मौत के मुहं से बचकर आ
                                    गए।
                                श्री जी के साथ चलते-चलते जब श्री लालदास जी रामनगर पहुंचे तो श्री छत्रसाल जी की जागनी
                                    का विचार करते-करते श्री लालदास जी मऊ पहुंच गए। जब श्री लालदास जी के मुखारविंद से
                                    श्री विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप से सम्बंधित श्रीमद्भागवत के श्लोकों को सुना
                                    तो श्री छत्रसाल जी के दिल में श्रीजी के चरण कमलों के दर्शन की प्रबल इच्छा हो गई और
                                    छत्रसाल जी ने देवकरण को श्री लालदास जी के साथ जाकर श्री जी को लिवाने के लिये भेजा।
                                
                                 “अष्ट प्रहर की सेवा में श्री लालदास जी की सेवा” 
                                 प्रथम प्रहर-
                                    श्री लालदास जी की उत्तम व्यवस्था को देखकर श्रीजी ने प्रसन्न होकर श्री लालदास जी को
                                    महान आत्मा की शोभा प्रदान की।
                                    दूसरा प्रहर-
                                    दूसरे प्रहर में श्री जी के दोनों ओर केशव जी के साथ श्री लालदास जी भी बैठते हैं। वे
                                    श्रीजी को कुरान, हदीस तथा भागवत् आदि पढ़कर अपने धामधनी को रिझाते हैं ।
                                    "राजभोग"
                                    भोजन के पहले स्नान के समय श्रीजी पर जल डालने की सेवा में भी श्री लालदास जी सम्मिलित
                                    रहते हैं ।राजभोग के समय श्री लालदास जी धोती आदि वस्त्रों को लाते हैं और श्रीजी को
                                    पीताम्बर पहनाने की सेवा करते हैं ।जिस चांदी के थाल में श्रीजी भोजन आरोगते हैं वह थाल
                                    भी श्री लालदास जी ने ही बनवाया है ।भोजन करते समय श्रीजी अपने मुखारविंद से जो
                                    चौपाईयां कहते हैं उनको श्री लालदास जी बड़े ही ध्यानपूर्वक लिखते हैं ।
                                    चौथा प्रहर-
                                    श्री लालदास जी श्रीजी का हाथ पकड़कर गादी पर बैठाते हैं और श्री जी के दोनों चरणों की
                                    पिंडुरियों को पकड़कर दबाते हैं।
                                    छठ्ठा प्रहर:-
                                    छठ्ठा प्रहर अर्थात् रात्रि 9 से 12 बजे के बीच श्री बंगलाजी दरबार में श्रीजी को
                                    रिझाने के लिये श्री लालदास जी कुरान- हदीस पढ़ने के लिये बैठते हैं।
                                    सातवां प्रहर :-
                                    श्री लालदास जी कोई आयत लेकर आ जाते हैं और धाम धनी उसे ध्यानपूर्वक सुनते हैं और
                                    लालदास जी ने श्रीजी के मुखारविंद से जो चर्चा सुनी होती है,उसे सुंदर साथ में सुनाने
                                    की आशा से बैठे रहते हैं ।
                                    आठवां प्रहर :-
                                    आठवां प्रहर अर्थात् रात्रि के 3 बजे से प्रात: 6 बजे तक। प्रातः काल मंगल आरती से
                                    पूर्व ही श्री लालदास जी अपनी शैया छोड़कर उठ जाते हैं ताकि मंगल आरती के पश्चात् वे सभी
                                    सुंदरसाथ को परमधाम की वृत सुना सकें ।
                                
                                
                                     "36 कारखानों की सेवा" 
                                
                                सुन्दरसाथ की सेवा को सुचारू रूप से चलाने के लिये जो   36 कारखाने  बनाए गए थे ,श्रीजी ने
                                    उन सबको निर्देशित करने का अधिकार भी श्री लालदास जी के हाथों में सौंप दिया था। श्री
                                    लालदास जी ने इस प्रकार की व्यवस्था कर रखी थी कि किसी भी विभाग की सेवा में विलम्ब या
                                    त्रुटि नहीं हो पाती थी। श्री लालदास जी सारी व्यवस्थाओं पर दृष्टिपात करने के पश्चात्
                                    धामधनी के चरणों में प्रणाम करते हैं। धामधनी श्री प्राणनाथ जी उनकी सेवाओं से प्रसन्न
                                    होते हैं और उनको बहुत ही लाड़ भरे शब्दों से बुलाते हैं।
                                जिन पांचों शक्तियों ने श्री प्राणनाथ जी से वाणी का प्रकटन करवाया उसी शक्ति ने श्री
                                    आसबाई की    आतम (श्री लालदासजी) के  अन्दर विराजमान होकर श्री बीतक साहब की रचना करवाई।
                                    श्रीजी को श्री महामति जी की जो शोभा जाहिरी में मिली, वहीं श्री महामति जी की शोभा
                                    श्री लालदास जी को बातूनी में मिली।
                                इस बीतक की रचना तब हुई जब श्री प्राणनाथ जी श्री गुम्मटजी में ध्यानावस्थित हुए (श्रावण
                                    वदी चतुर्थी ,  वि. स.1751)। उसके दूसरे दिन से ही श्री पन्ना जी में श्री लालदासजी ने
                                    श्री बीतक साहब का लेखन आरम्भ किया और भादोवदी अष्टमी (श्री कृष्ण जन्माष्टमी) के दिन
                                    समाप्त किया। इसके पश्चात् श्री लालदासजी की इह लीला समाप्त हुई। 
                            
                            
                                
                                    
                                     सप्रेम प्रणाम जी !
                                    सतगुरु व परमहंस संक्षिप्त परिचय पढ़ने के लिए और समय निकालने के लिए धन्यवाद। 
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